Thursday, October 17, 2019

बाबु जी की आखिर सहेली

जिंदगी की भाग दौड़ में कब अपने दूर चले जाते है पता ही नहीं चलता। मेरा नाम केशव है और आज मेरे पिता जी का निधन हो गया। पिता जी को मैं प्यार से "बाबु जी" बुलाता था। मेरे बाबु जी एक रिटायर्ड प्रोफेसर थे और उम्र के सत्तरवें (७०) साल में थे। मेरी माता जी का निधन ५ (पांच) साल पहले ही हो गया था ,तब से बाबु जी अपने परम मित्र घनशयाम चाचा के सहारे थे पर उम्र के साथ वह भी चले गए। मैं और मेरी पत्नी नौकरी पेशा है और अपने परिवार की भौतिक जरूरतों को पूरा करने में दिन बेता देते है। मेरे परिवार में केवल तीन (३) लोग थे कल तक; बाबु जी, मैं और मेरी पत्नी राधा । हमने अभी तक संतान नहीं की क्यों की वक़्त और पैसे दोनों कम थे।

बाबु जी उम्र के इस पड़ाव में भी एक मिलनसर और ज़िंदादिल व्यक्ति थे। माँ और घनशायम चाचा के जाने के बाद वह अकेले थे पर जब भी किसी से मिलते, तुरंत घुलमिल जाते थे। कहते है एक बच्चे और बूढ़े में कोई अंतर नहीं होता, ये उन्हें देख कर साफ़ समझ आता था। हर उम्र के लोगो से दोस्ती कर लेते थे। शिक्षा के क्षेत्र से होने के कारण उनको ज्ञान और अनुभव दोनों ही बहुत था, काफी छात्र (स्टूडेंट्स) अक्सर उनसे मिलने और परामर्श लेने आते रहते थे। बाबु जी रोज़ सवेरे और शाम पार्क में टहलनें जाते थे और अक्सर वही स्टूडेंट्स से मिलने थे।

कुछ तीन (३) महीने पहले बाबु जी को पार्क में एक लड़की मिली, उसने बताया की वह सिविल परीक्षा की तैयारी कर रही है।  वह लड़की रोज़ बाबु जी से पार्क में मिलती और अलग अलग विषयो पर चर्चा करती। उसने बताया था की वह पास के गाँव के एक गरीब परिवार से है और शहर में कोचिंग के लिए आयी है। बाबू जी उसे हर तरह का मार्गदर्शन देते रहते थे। समय के साथ वह बाबू जी की प्रिय छात्रा और मित्र दोनों बन गयी थी। वह एक-दो बार घर भी आयी थी, और हम ये देख कर खुश थे की बाबू जी को समय काटने और बात करने के लिए कोई मिल गया था। "और नहीं तो क्या", हमारे पास वक़्त कहा था और वह एक स्टूडेंट ही तो थी। मैंने और राधा ने ध्यान से कभी उसे देखा भी नहीं था। ये कोई नई बात नहीं थी की कोई स्टूडेंट बाबू जी के साथ मिल-झूल रहा था। बाबू जी उसकी पढाई के लिए लगन देख बहुत प्रभावित थे। हम लोग यहाँ अपने काम में  मशरूफ थे और बाबू जी उसे पढ़ने में। समय अपनी गाती से चल रहा था। मेरी पत्नी अब उसे "बाबू जी की सहेली" बुलाती थी।

एक (१) महीने पहले बाबु जी सुबह पार्क से बहुत उदास घर आये। राधा ने कारण पुछा तोह कुछ जवाब ही नहीं दिया और कमरे में जा कर लेट गए। जब मैं रात में दफ़्तर से घर आया तो उसने मुझे ये सब बताया। तीनो रात में खाने की मीज पर साथ बैठे पर जाने क्यों एक अजीब बेचैनी थी बाबु जी के चेहरे पर, जैसे क्या खो गया हो। मैंने बाबू जी से पूछा "क्या होआ बाबु जी", वो बोले "सीमा दो (२) हफ्तो से मिलने नहीं आयी। मैं और राधा असमंजस में पड़ गए, "कौन है ये सीमा"। हमने बाबु जी की ओर संकोच से देखा, वो बोले "मेरी स्टूडेंट"। राधा ने हस्स कर बोला "आपकी सहेली", बाबू जी ने सिर हिलाया। हम दोनों ने बोला "आजाऐगी बाबु जी", और खाना खाने में लग गये, बाबु जी से उनकी चिंता का कारण पूछना याद ही नहीं रहा।

दो हफ्ते बाद, बाबू जी शाम की सैर से लौटे ही नहीं; रात के दस (१०) बज गए। मैं और राधा उनका इंतजार करते बैठे थे। वो आये और उदास सोफे पर बैठ गए। हम कुछ पूछते उससे पहले ही वो बोल पड़े, "वह सीमा एक ठग थी और मेरे दो लाख रूपए  ले कर भाग गयी। उसने बोला था उसके पिता जी का एक्सीडेंट हो गया है और ईलाज के लिए दो (२) लाख चाहिए। इन्शुरन्स कंपनी जब क्लेम देगी तो पैसे वापस कर देगी।  आज मैं उनके मकान पर गया तो पता चला वो भाग गयी है। मकान मालिक ने बताया की दो (२) महीने का किराया भी नहीं दिया। पुलिस थाने गया तो पता चला वह एक ठग थी और कई लोगो को अपनी बातो में फ़सा कर लाखो ठगे है उसने। सब को एक अलग नाम और कहानी सुना कर ठगा है उसने"।

मैंने गुस्से में बोला, "आप एक बार पूछ तो लेते"। वो बोले "जिंदगी में एक बार जरूर इंसान को उसका तजुर्बा धोखा दे देता है, मुझे भी दे गया। माफ़ करना बेटा पर तुम लोगो का वक़्त नहीं लेना चाहता था इसलिये पूछा नहीं"। ये कह कर वो अपने कमरे में चले गए। अब मैं और राधा एक अत्म गिलानी में चले गए थे, बाबु जी से बात करने का वक़्त ही नहीं था कभी हमारे पास, कितना अकेला कर दिया था हमने उन्हें।

कुछ देर बाद उन्होंने अपने कमरे से आवाज दी, "चलो अब सो जाओ कल ऑफिस जाना है"। हम अपने कमरे  में सोने चले गए। सवेरा तो हो गया पर बाबु जी फिर कभी नहीं उठे। आज उनकी चिता के सामने खड़ा मैं ये सोच रहा हूँ की इस विष्वास-घात ने, या हमारे दिए हुए अकेले-पन ने उन्हें हमसे हमेशा-हमेशा के लिए दूर कर दिया। अब ये उलझन सारी जिंदगी अनसुलझी रह जाऐगी।

 

कलम से...... 

प्रियंका तिवारी  


 

Disclaimer :

This is a work of fiction. Names, characters, businesses, places, events and incidents are either the products of the author’s imagination or used in a fictitious manner. Any resemblance to actual persons, living or dead, or actual events or any other literary material, called by any other name, is purely coincidental. The story is purely for entertainment purpose and the author has no intention to hurt the sentiments & emotions of any individual or public at large.

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