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Sunday, July 28, 2024

सफर और मंजिल

सफर और मंजिल
ये मेरी पहली सोलो ट्रिप (अकेल सफर) होने वाली है। इतनी मुश्किल से इस सफर के लिए सब प्लान (प्रबन्ध) किया  है और निकलने को उत्सुक हूँ। सब से बड़ी बात, किसी को पता नहीं की मैं सफर पर निकली हूँ। थोड़ा तो कुछ नया और एक्ससिटिंग (रोमांचक) होना चाहिए लाइफ (जीवन) में। प्लान (योजना) तो बहुत सिम्पल (आसान) है, हर जगह की ट्रैन की टिकट और होटल की बुकिंग एडवांस (पहले से) करवाँ ली है। क्यों की मैं जोब (नौकरी) के कारण अकेली रहती हूँ, तो मुझे निकलने में कोई दिक्कत नहीं होगी। प्लान (योजना) तो काफी पहले बना लिया था, पर किसी को बताया नहीं ताकि कोई रोक-टोक न लागा दे। आज भी हिन्दुतान में अकेले लड़की का बाहर जाना, वह भी लम्बे सफर पर कोई ज्यादा सही नहीं समझता। खैर, एक हफ्ते की बात है, मैं घूम कर लौट आऊंगी। सामान सब बाँध लिया है, और बस सुबह का इतंजार है। दिल्ली से केरला का सफर थोड़ा लम्बा तो है, पर मेरे लिए बिलकुल सही है। हर चीज पर ध्यान दिया है मैंने, ट्रेन का रास्ता, समय, सुरक्षा और मंज़िल। मुझे ट्रेन से सफर करना बचपन से पसंद है, मेरा बस चले तो हमेशा ट्रैन में रहूँ। एक अलग ही जुड़ाव है मेरा ट्रेन के सफर से, बस दिल ,मंत्रमुद्ध हो उठता है । 

तो आज रविवार है और सुबह से मन में हलचल है, चार बार सब चेक (जजच) कर चुकी हूँ, की कुछ छुटा तो नहीं। भाई, चालीस-इकतालीस घंटो का सफर है, तीन हज़ार किलो-मीटर दूर मुझे कोल्लम पहुंचना है, और फिर बीचस (समुद्र तट), मंदिर, वाटर बोट रेस सब देखना है। शाम चार बजे दिल्ली हज़रत निजामुद्दीन स्टेशन के लिए निकल रही हूँ, और सच बताओ एक अलग ही उत्साह और घबराहट का मिला-जुला भाव है अंतर-मन में। मैं, इरा हूँ और ये मेरा पहला सोलो ट्रिप (अकेल सफर) है। 

टैक्सी में स्टेशन जाते हुए  :
इरा : भईया सारा सामान रख दिया है न ?
टैक्सी चालक : हाँ मैडम। 
इरा : भईया जल्दी करो स्टेशन पहुंचना है। 
टैक्सी चालक : अरे, आप निशचिंत रहो। 

राजधानी एक्सप्रेस को देख कर तो मन ही प्रफुल्लित हो उठा। ऐसा लग रहा है, "जैसे जंगल में मोर ने पहले सावन की फुहार देख ली हो और अब बस नाचने के लिए पँख फैला रहा है"। मैं तो बस ट्रैन में बैठ कर ये सोचने में लग गयी की कैसे-कैसे घूमना है और कहा-कहा जाना है। पहले  तो दिल्ली हज़रत निजामुद्दीन स्टेशन से ट्रैन से कोल्लम पहुंचना है और फिर घूम कर कोच्ची जाना है। कोल्लम में दो तीन रुकना है और फिर कोच्ची के लिए निकलना है. लगभग तीन घन्टे का रास्ता है कोल्लम और कोच्ची के बीच। कोच्ची में दो दिन रुक कर फिर वापसी करनी है। 

कितनी जगहे देखनी है। खैर, ट्रैन में बैठी तो मज़े की बात ये हुई की मेरे सामने वाली सीट पर भी एक लड़की ही है "रामा" नाम की। कुछ देर में हमारी बाते शुरू हो गई, क्यों की सफर लम्बा है। 

(इरा रामा से बात करते हुए )
इरा : तो आप भी कोल्लम जा रहे। 
रामा : हाँ। 
इरा : आप भी अकेले हो क्या। 
रामा : अभी तो हूँ, पर कोल्लम में मेरे दोस्त आ रहे है। 
          आप अकेले हो क्या। 
इरा : हाँ, मैं तो सोलो ट्रिप (अकेल सफर) पर निकली हूँ। 
रामा : पर आप चाहो तो हमारे साथ चलो। 
इरा : हमारा होटल भी पास है। 
रमा : हाँ , मेरा भी पास ही है। 
इरा : चलिए अभी तो साथ ही सफर करते है। कोल्लम पहूँच कर देखते है। 
रामा : हम लोग ठेवले महल, अमृतपुरी मंदिर, जटायु केंद्रे, महात्मा गाँधी बीच, अष्टमुडी तालाब .... 
इरा : अरे बस-बस, मैं इतनी जगह नहीं जा रही। मैं आराम आराम से घुमूंगी। 
रामा : वो भी अच्छा है। 
इरा : मुझे फिर कोच्चि भी जाना है।  
        बोट क्रूज, मट्टनचेर्री महल, हिल पैलेस म्यूजियम और फिर हाउस बोट में रहूंगी..... 
रामा : बाप..... रे, लिस्ट (सूची) तो तुम्हारी भी लम्बी है। 

हमारी बात लम्बी चली। 
रात को मैं अपनी किताब पढ़ रही हूँ और घर वालो को टेक्स्ट (संदेश) लिख रही हूँ। घर पर अभी भी किसी को नहीं पता की मैं कहा हूँ। और मैं ये सोच कर ही एक्साइट (रोमांचित) हो रही हूँ। घर जाकर सब को इस ट्रिप की बाते और कहानिया सुनाऊँगी। मम्मी तो मुझे पहले डाटेंगी, फिर मुझे उन्हें मनाना होगा। पापा तो बस बोलेंगे, बेटा ऐसा नहीं करते कुछ हो जाता तो। खैर सब अच्छा होगा। 

अब नींद आ रही है।  सोने से पहले बाथरूम (शौचालय) चली जाती हूँ। रामा से भी पुँछ लेती हूँ। साथ ही चल लेंगे दोनों। 
दोनों साथ में बाथरूम (शौचालय) जाती है, बस इरा रामा का बाथरूम के बाहर इंतजार कर रही है की इतने में एक टनल आ जाती है और हर जगह अँधेरा हो जाता है

"ये कहाँ हूँ मैं", इरा ने मन में सोचा। वह एक अलग ही जगह है अब। 

इरा का सिर भी बहुत भारी है। इरा को होश आता है तो वह खुद को एक खली कमरे में पाती है। उसके हाँथ पाँव बँधे हुए है। और उसे बाहर से दो आदमीयो की लड़ने की आवाज आ रही है। 

लखन : राजन, ये वो लड़की नहीं है। 
राजन : लखन ,अरे मुझे वही लगी। 
लखन : एक काम ठीक से नहीं होता तुम लोगो से। 
राजन : अब क्या करे। 
लखन : अब इसी लड़की से काम बनाते है। 

इरा समझ जाती है की जब ट्रैन टनल से घुसी तो उसे पीछे से आ कर किसी ने कुछ सुंघा दिया होगा और वह बेहोश हो गयी। शायद ये लोग रामा का किडनैप (अपहरण) करना चाहते थे पर हम दोनों की कद-काठी इतनी एक सी थी की मुझे रामा समझ कर ले आये। इरा को किसी के आने की आहट मिलती है और वह वापस बेहोश होने का नाटक करने लगती है। 

लखन : इसे अभी तक होश नहीं आया। 
राजन : मर तो नहीं गयी। 
लखन : कितनी दवा डाली थी। हे राम, अब क्या ये लड़की भी हाँथ से गयी। 
राजन : (इरा की नाक के आगे हाथ हिलाते हुए) साँसे चल रही है। कुछ देर में होश आ जाएगा। 
लखन : पता करो कौन है ये, इसका बाप कौन है, कहाँ से है ?

तीन घंटे बाद लखन इरा के ऊपर पानी डाल देता है। अब इरा डर कर उठ जाती है। 

लखन : कौन हो तुम ?
इरा : इरा अय्यर (डरते हुए) 
लखन : कहाँ से हो तुम ?
इरा : दिल्ली।
लखन : क्या करती हो और घर वाले क्या करते है ?
इरा : मैं दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ती हूँ और पापा की किराना की दुकान है। 
लखन : अपने बाप का नंबर दो। 
इरा : भईया मुझे जाने दो। मिडिल क्लास घर से हो। 
लखन : नंबर देती हो या लगाओ एक। 
राजन : लखन ,पुलिस इस लड़की हो खोज रही है। वो जिस लड़की को उठाना था न उसने पुलिस बुला दी इसके लिये।  
लखन : यहाँ से निकलते है अभी। रात है, आसानी से निकल जाएँगे। 
राजन : उठाओ इसे और गाड़ी में डालो। 
लखन : उठ लड़की और चुपचाप चल, नहीं तो हालत ख़राब कर दूंगा। 

इरा के पास कोई रास्ता नहीं है। वह चुप चाप लखन की बात मान कर चल देती है। इरा इतना समझ गयी है की अभी बस इन लोगो की बात मान लेना ही उसके लिए सही है। 

लखन उसे गाड़ी की पीछे वाली सीट पर बैठा देता है। गाड़ी चलने लगती है।  यहाँ इरा अपने घरवालों की बात याद कर के ऑफ्सोस कर रही है और सोचती है ;

काश मैंने घर पर बताया होता की मैं कहा जा रही हूँ। 
काश मैं अकेली ना आयी होती।
काश मैंने आखिरी बार सब से बात कर ली होती। 
काश उन्हें बताया होता मैं उनसे कितना प्यार करती हूँ। 
काश थोड़ा और वक़्त गुज़र लेती उन सब के साथ। 
अगर घर न लौटी तो माँ-बाबा का क्या होगा। 
ये मेरे साथ ही क्यों हो रहा है, मैंने तो कभी किसी का कुछ नहीं बिगाड़ा। 

पर अभी भी कोशिश करुँगी मैं, इन लोगो के चंगुल से निकलने की। 
उम्मीद नहीं हरने वाली मैं। 
पर दिमाग से काम लेना होगा और भगवान सब साथ देंगे। 

इरा के हाँथ पाओ बढ़े है और मुँह पर टेप लगा है। गाड़ी किसी हाईवे पर अचानक रुक्क़ जाती है। इरा शांति से देखने लगी। 

लखन : गाड़ी रुक्क़ क्यों गयी, जारा देखना राजन। 
राजन : देखता हूँ। 
            कुछ खराबी आ गयी है पास में मैकेनिक देखना होगा। 
लखन : अब ये क्या मुसीबत है। देख लड़की चुप चाप रहना नहीं तो जान से हाँथ धो बैठेगी। 
इरा : सर हिला कर हाँ बोलती है। 
राजन : भईया, इसे गाड़ी में किसी ने देख लिया तो दिक्कत हो जाएगी। क्यों न इसे रोड के बदल के जगल बाँध कर चले। 
लखन : बात सही है। इसे किसी पेड़ से बाँध देते है थोड़ा दूर। किसी को रात में दिखाई भी नहीं देगी। 

लखन और राजन इरा को रोड के बगल के जंगल में एक पेड़ से बाँध देते है। दोनों गाड़ी में लॉक (टाला) लगा कर पास में मैकेनिक देखने निकलते है। इरा उनके कुछ दूर जाने का इंतज़ार करती है और भगवन से प्रार्थना करती है की उसे बचाले और यहाँ से निकले। अब इरा अपनी रस्सी खोलने की कोशिश में लग जाती है। बड़ी मुश्किल से उसकी रस्सी ढीली पड़ गयी और वह किसी तरह निकल पाई। बस फिर क्या इरा जंगल में भागना शुरू कर देती है। रास्ता तो पता नहीं  है  इसलिए इरा रोड के पास ही रह कर किसी पास की बस्ती में पहुंचने की कोशिश करती है। इधर राजन और लखन वापस आ गए है। उन ने देखा इरा वहाँ नहीं है तो वह उसे खोजने लगे। 

इधर इरा ज्यादा दूर नहीं निकल पाई है। उसे जंगल में किसी के भागने और बोलने की आवाज आ रही है। वह समझ गयी की लखन और राजन उसे खोजने में लगे है। वो पास की एक बस्ती में पहुँच गयी पर अब उसे लखन और राजन की साफ़ आवाज आ रही है।  रात का वक़्त है, गालियां खाली थी बस आवारा कुत्ते घूम रहे है। इरा सोच रही है की कही कोई कुत्ता उस से देख कर भोकने न लगे, नहीं तो लखन और राजन को उसका पता चल जाएगा। आवारा कुत्तो की उहार उसे और डरा रही है। उससे ऐसा लग रहा है जैसे कोई उसका शिकार करने उसके पीछे लगा है । पर वो किस्से मदद माँगती, ऊपर से अगर किसी का दरवाजा खटखटाती है तो क्या पता लोग दरवाजा खोलते है भी या नहीं। 

इरा ने भगवन को याद किया। अचानक ही इरा के पैर पर कुछ लगा। उसने देखा की किसी के दुकान की अंडरग्राउंड (भूमिगत) पानी की टंकी खुली रह गयी थी। रोशिनी ज्यादा है नहीं यहाँ पर। इरा को पानी का इस्त्र और टंकी की गहराई भी समझ नहीं आ रही है। उधर लखन और राजन की आवाज भी और पास आने लगी है। एक तरफ कुआ है और दूसरी तरफ खाई। अब बस वक़्त नहीं है, ये सोचते ही इरा पानी की टंकी में उतर जाती है। ऊपर वाले ने फिर साथ दिया और पानी केवल इरा के घुटनो तक है। इरा अब बस उम्मीद कर रही है की किसी तरह सुबह हो जाए और सुबह की किरण के साथ उसकी जिंदगी की ये काली रात ख़तम हो। वह बस पानी की टंकी के ढक्कन के छेद को ताक रही है इस उम्मीद में की दिन का उजाला देखेगी। उम्मीद कर रही है की वह अपने घर फिर जा पाएगी, अपनों से मिल पाएगी और उनको बता पाएगी की कितने अहम है वह सब उसके लिए। उसे लखन की गुस्सैल आवाज साफ़ आ रही है;

"खोजो उसे नहीं तो दोनों को कुछ नहीं मिलेगा, सुबह होने से पहले" 

वह बार-बार सोच रही है की कैसे दो लोगो की किस्मत एक ही वक़्त में एक जगह पर होने से बदल गयी। जहाँ रामा को होना चाहिए था वहाँ कैसे वह आ गयी और जहाँ उसे होना चाहिए था वहां कैसे रामा पहुँच गयी। एक इंसान कैसे सही होते हुए भी गलत परिस्थितियों में फस जाता है। क्या ये उसका बुरा वक़्त है, या रामा की अच्छा किस्मत है। क्या भगवन रामा को बाचाना चाहता था और अब उसे, या वो दोनों को किसी न किसी तरह से बाचाना चाहता है। कैसे एक ही पल में उसका सफर और मंजिल दोनों बदल गयी। अब उसकी आने वाली जिंदगी का सफर और मंजिल का फैसला सुबह की किरण करेगी...... 

कलम से 
प्रियंका तिवारी

 

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Saturday, January 14, 2023

डॉक्टर डायन

डॉ. राहीस - शाजिया, तुम कही पास के गाँव में ट्रेनिंग करों अगर करनी ही है, या बेटा ऍम .डी (डॉक्टर ऑफ़ मेडिसिन) के बाद करना आराम से ट्रेनिंग।

शाजिया - अब्बू, रूरल (ग्रामीण) ट्रेनिंग से नॉलेज  (ज्ञान) मिलेगा और ऍम .डी के बाद मैं ट्रेनिंग स्पेशलाइजेशन में करुँगी। अभी तो फिजिशियन की ट्रेनिंग लेना है। आप तो सब जानते है, खुद डॉक्टर है।

डॉ राहीस - पर अपने बिहार में इतने गाँव है तुम्हें ये दूसरे स्टेट (प्रदेश) के गाँव में ही क्यों जाना है। वह भी उस गाँव में जहाँ सड़के भी नहीं है।

शाजिया - अब्बू, आप समझाये कितना चल्लेंजिंग एक्सपीरियंस (चुनौतीपूर्ण) होगा। और वहाँ कितना कुछ सीखने मिलेगा।

डॉ. राहीस - बेटा वहाँ जातिवाद का बड़ा बोलबाला है। "इट्स  नॉट  राईट प्लेस फॉर यू" (वो  सही जगह  नहीं है तुम्हारे लिए)।

शाजिया - ओह्ह अब्बू, मैं सब सम्हाल  लूंगी। आप बस फॉर्म सइंग  कीजिए। 

डॉ. राहीस - शाजिया, तुम न.इ.इ.टी (नेशनल एंट्रेंस कम एलिजिबिल्टी टेस्ट) और अपने कॉलेज की टॉपर हो, कोई भी गवर्नमेंट मेडिकल कॉलेज मिल जाएगा, तो ये परेशानी क्यों मोल ले रही हो। अभी तुम बहुत यंग (युवा) हो, अभी तुम्हे इतना एक्सपीरियंस (तजुर्बा) नहीं दुनिया-दारी का।

शाजिया शेख एक चौबीस (२४) वर्ष की ऍम.बी.बी.एस (बैचलर ऑफ़ मेडिसिन अण्ड बैचलर ऑफ़ सर्जरी) ग्रेजुएट है जो अपनी मेडिकल की ट्रेनिंग के लिए एक पिछड़े हुए आदिवासी गाँव में जाना चाहती है। उनके पिता बिलकुल नहीं चाहते शाजिया वहाँ जाए क्यों की वो एक पिछड़ा इलाका है।

शाजिया - अब्बू, एक्सपीरियंस (तजुर्बा) करने से ही आयेगा। और अब मैं बड़ी हो गयी हूँ। अब दुनिया नहीं देखूँगी तो कब देखूँगी। मैं आपकी बेटी हूँ, बचपन से आपको देख कर सीख ही तो रही हूँ। अब अपनी दुनिया भी जीत लूँ। मैं हर हाल में सब सहमल लूँगी। 

मुझे जाने दीजिए न.... प्लीज। ....

डॉ. राहीस बेटी की सुनन कर मान जाते है, और बोलते है... 

डॉ. राहीस - शाजिया, डॉक्टर होना आसान है, पर बनना मुश्किल। लोग एक पल में खुदा और दूसरे ही पल शैतान बना देते है। कभी कभी दुसरो की जान छोडो,अपनी जान बचाना मुश्किल हो जाता है बेटा। पर जो भी हो अपने मरीज की जान हर हाल में बचाना। चाहे उसके लिए लड़ना भी पड़े।

पिता के शब्द शाजिया के दिलो दिमाग में बैठ चुके थे। अगले महीने ही शाजिया उस गाँव के लिये निकल गई। पहेल तो पास के एक छोटे रेलवे स्टेशन पहुंची, फिर वह से एक जीप में गाँव के लिए निकली। रास्ता तो था ही नहीं, कच्ची सड़क थी और शाजिया अकेली। जैसे तैसे वो गाँव पहुंची।

गाँव पहुंचने में रात हो गयी। इसलिए उसे जो होस्पिटल (अस्पताल) का क्वॉटर मिला था वहाँ पहुंचते ही सो गयी। क्या हॉस्पिटल ! 
ये तो एक छोटा प्राथमिक केंद्र जैसा था। यहाँ दो (२) डॉक्टर, डॉ सरला और डॉ निर्मल। एक नर्स और एक कम्पाउण्डर है। सीनियर डॉक्टर सरला जी है।

सुबह शाजिया डॉक्टर सरला से मिलती है। 

डॉ. सरला - यहाँ ज्यादा लोग डॉक्टर के पास नहीं आते बल्कि बाबा के पास जाते है। और वह से ठीक भी हो जाते है। जिन्हें वह ठीक नहीं कर पाते वह हमारे पास आते है। 

डॉक्टर सरला का रिटायरमेंट (सेवानिवृत्ति) होने वाला है अगले महीने में। वो एक सरल सौभाव की महिला है।

डॉ. सरला - तुम अपने काम से काम रखना और ज्यादा किसी से बोलने ही जरुरत नहीं। तुम बस जो मरीज अस्पताल में आए उन्हें देखो और गाँव के अंदर रहो। गाँव के बाहरी इलाको में जाने की जरुरत नहीं।

शाजिया - पर ऐसा क्यों ????

डॉ. सरला - मैं तुम्हारी गाइड हूँ, जो बोलू उसे  मानो । आपकी सेफ्टी (सुरक्षा) के लिये बोल रही हूँ।

शाजिया - पर कुछ चाहिए हो तो ???

डॉ. सरला - हर सप्ताह अस्पताल की गाड़ी शहर जाती है, तुम भी चली जाना।

अलगे एक महीने तक शाजिया डॉ सरला के अंदर ट्रेनिंग करती है। और फिर डॉ सरला अपना रिटायरमेंट ले कर चली जाती। और शाजिया को मौका मिल जाता है गाँव घूमने का। वो गाँव को जान समझ रही थी।

एक दिन वह शाम के समय गाँव के बाहर के इलाके में जा पहुंची और देखती है - कुछ औरते और लड़किया बेसूध चीख चिल्ला रही। कोई बेहोश हो रही है, तो कोई जमीन पर लोट रही है। जैसे सब पागल हो गयी हो।

कुछ गाँव वाले आस पास बैठे बस देख रहे थे।

शाजिया बहुत डर जाती है पर हिम्मत कर के आगे बड़ती है और एक आदमी से पूछती है ! 
(माहौल में एक डर का साया है, हवा जैसे कुछ अलग ही सेहक के साथ बह रही है)

शाजिया - भइँया क्या होआ है इन्हे ???

आदमी शाजिया को पहचान जाता है और बोलता है।

"मैडम जी ये सब डायन के वश में है, आप यहाँ से चले जाओ। ये डायन अकेली, कमसिन-युवा, विधवा और बूढी औरतो को पकड़ लेती है।"

इतना सुनते ही साजिया घबरा जाती है। वह समझ ही नहीं पाती की करे तो करे क्या। उसके पैर जैसे जम गए हो। ना आगे बढ़ पाती है, और न पीछे जा पाती है। फिर शरीर की पूरी जान लगा कर वहाँ से भाग निकलती है।

शाजिया की सारी रात डर के साये में बीती और दिन को भी चैन न मिला। शाजिया ने ऐसा कुछ पहले देखा ही नहीं था, और जानना चाहती थी इसके बारे में।

डॉ. निर्मल - डॉ. शाजिया आप थोड़ी परेशन दिख रही हो । क्या हुआ, घर की याद आ रही है क्या। (हस्ते हुऐ )

शाजिया - नहीं डॉक्टर। बस कल गाँव के बाहर के इलाके में गयी थी। वहाँ कुछ औरतो और बच्चियों ....... (बोलते बोलते संकोच में रुक जाती है)

डॉ. निर्मल - अच्छा अब समझा, दयानो को देख लिया अपने। चलो अच्छा होआ। वैसे भी हम आपसे कितने दिन छुपाते। आपसे पहल ४ (चार) जूनियर डॉक्टर्स भाग चुकी है। इसलिए डॉ. सरला आपको रोक रही थी। खेर अब आपकी मर्जी है हम आपको रोकेंगे नहीं। आप जाना चाहे तो जा सकती है...... (दबी आवाज में, सांसे भरते हुऐ )

शाजिया - आप डॉक्टर होते होए कैसी बात कर रहे है। 

हाँ, घबराई थी मैं ,पर अब जानना चाहती हूँ।  हुआ क्या है इनको !

डॉ. निर्मल - देखो शाजिया , एक डॉक्टर होने के नाते हमने हर औरत के सारे टेस्ट (जाँच) करवाये और सबको ऑब्जरवेशन (देख रेख)में भी रखा।

शाजिया - क्या रिजल्ट आया टेस्ट और ऑब्जरवेशन  का ?? (उक्सुकता  के साथ बोली )

डॉ. निर्मल - कुछ नहीं। सब नार्मल (सामान्य) है। इन औरतो और बच्चियों को कोई परेशानी नहीं, बीमारी  भी नहीं है। ये बिलकुल स्वस्थ है।

ये सब आम तोर पर ठीक रहती है। बिलकुल नार्मल ........ पर जब बेसूध और पागल होती है तो सब एक साथ होती है। हमने हर मुमकिन कोशिश की पर कुछ समझ नहीं आया। दवाइयाँ, ट्रीटमेंट, देहोशी के डोस ........ पर कुछ काम नहीं आया।

जब भी ये सब ऐसी होती है, ये बेकाबू हो जाती है।

शाजिया - कुछ तो पता चला होगा आपको।

डॉ. निर्मल - देखने से सच लगता है, डायन का साया है इन सब पर। क्यों की कोई बीमारी नहीं है इन्हे। ये पागल भी नहीं। पर सब एक साथ ऐसे कैसे हो जाती है .....

कोई बेसूध होती, तो कोई बेहोश, कोई चिल्लाती है, तो जमीन पर लोटती है .........

कोई बाल हवा में घूमती है, तो कोई खुद में झूमती है ......... (हताश स्वर में )

शाजिया - पर गाँव के बहार क्यों रखा है ???

डॉ. निर्मल - क्यों की ये डायन अपना साया एक से दूसरी पर फैलाती है। ये सब २ साल पहले शुरू हुआ ।

एक औरत थी, नीमो नाम की। बड़ी अच्छी औरत थी। बगल के गाँव से थी। उसके आदमी ने उसे हमारे गाँव की औरत के लिए छोड़ दिया। उसने हमारे गाँव के हर इंसान के आगे हाँथ जोड़े थे, रो-रो कर बिनती की थी। अरज की थी की उस औरत को समझाये, मेरा और मेरे बच्चे का इस दुनिया और कोई नहीं है। पंचो से भी उसने अर्जी लगाई, पर किसी ने उसके पति को कुछ नहीं बोला। क्यों की उसके पति ने सब का मुँह पैसो से भर दिया था। उसके परिवार में और कोई नहीं था, बस उसका एक बेटा था। उसका बेटा भी पीलिया से बीमार हो कर मर गया। उसका पति उस औरत के साथ शहर चला गया। वह अकेली औरत, बेचारी पागल हो कर पुरे गाँव में भटकती रही और हर किसी को बद्दुआ देती रही। आखिर में उसने पीपल के पेड़ पर फाँसी लगा कर जान दे दी।

उसके बाद कई लोगो को वह रात में उसी पेड़ के पास दिखी।

और जल्दी ही गाँव की औरतों पर उसका साया हो गया।

शाजिया - आप लोगो में से किसी ने इन औरतो और लड़कियों से बात की ???

डॉ. निर्मल - आप से पहले जो ४ (चार) फीमेल जूनियर डॉक्टर्स आई थी ,उनने कोशिश की। पर वह खुद बीमार हो गयी, उस डायन के असर से। इसलिए तो आपको इन सब से दूर रखा।

शाजिया - तो अब इन औरतो और बच्चियों का क्या होगा। उनका खाना पानी।

डॉ. निर्मल - ये सब भगवन के भरोसे है। कुछ लोग बचा हुआ खाना इनके लिए रख आते है अपने मान से, नहीं तो ये बेचारिया भूखी मरती रहती है। इनमे से कुछ है जो गाँव के घरो में खाना चुरा कर खुद खा लेती है।

वैसे बिच-बिच में बाबा जी आते है। तो गाँव वाले उनके बोलने पर इनको अच्छा खाना और कपड़ें दे आते है। जब तक बाबा जी गाँव में रहते है ये औरते ठीक रहती है। 

शाजिया - बाबा जी ??

ये वही बाबा जी है क्या जिनके बारे में  डॉ. सरला बाता  रही थी। 

डॉ. निर्मल - हाँ ये वही  बाबा जी है। वह जड़ी बूटियों और ध्यान विद्या से गाँव वालो का कई सालो से इलाज  कर रहे है। 

शाजिया कई दिनों  तक उन औरतो को गाँव के बाहर देखने जाती रही। शाजिया को गाँव वाले अब डायन डॉक्टर बोलते थे। इसी बिच गाँव में बाबा जी का आगमन  होआ। शाजिया बाबा जी से मिलने गयी। 

दूसरी तरफ गाँव में डायनो की आबादी बढ़ती जा रही थी। गाँव वालो ने इठक्का हो कर ये फैसला कर लिए था, की इन सारी औरतों और लड़कियों को गाँव के बाहर दूर बीहड़ो में छोड़ आयेंगे। 

बाबा जी - बेटी तुम ही हो जो इन औरतो का इतना ध्यान देती हूँ। 

शाजिया - बाबा जी क्या होगा इन औरतो का। 

बाबा जी - मैं कोशिश कर रहा हूँ। जब तक हो सकेंगे इनको बचाऊँगा। 

इसी बिच बाबा जी और शाजिया को गाँव वालो के फैसले का पता चला। 

शाजिया - बाबा ! ये भूखी -प्यासी मर जाएँगी। 

बाबा जी -  हम कोशिश करेंगे की ऐसा न हो। तुम उम्मीद न छोड़ो शाजिया। तुम समझदारी से काम लो। 

बाबा शाजिया को  समझाते है। उसे तसल्ली देते है और शाम वही गुजरने बोलते है ताकि वह बेचैन न हो। शाजिया रात में अपने क्वॉटर पहुँचती है। 

शाजिया (खुद से ) - बाबा की बातो से सुकून की शाम तो गुजर गयी, पर रात भरी थी। दिन में चट्टान की तरह मज़बूत आदमी भी रात के काले-वीराने-अँधेरे में कितना कमजोर हो जाता है। रात के अकेलेपन में इंसान कितना बेबस हो जाता है। उसे हर वो अधूरी बात, न-मुकम्मल ख़्वाब, गेहरा जख्म , दुःख, डर और दर्द याद आ जाता है जिससे वह दिन में भूल जाता है। रात के अकेलेपन में हर कोई कमज़ोर हो जाता  है। (फिर कुछ सोचने लगती है)

या खुदा !!

ये तो सच में !!!

(खुद से ऐसा बोलते ही शाजिया कुछ खोजने लगती है और इसी में सुबह हो जाती है)

सुबह होते ही बाबा से मिलने जाती है और फिर गाँव वालो से  बोलती है।  

शाजिया - बाबा जी ने इन औरतो से डायन निकलने की सिद्धि खोज ली है, पर अगर हमने इन औरतो को गाँव से बहार निकल दिया तो डायन गाँव को बर्बाद कर देगी। 
 
गाँव वाले (घबराते होए) - तो हम क्या करे। हम इन्हे ज्यादा बर्दाश नहीं कर सकते।  

शाजिया - बाबा एक महीने में आपको इन डायनो से छुटकारा दिला देंगे। पर हम सबको मिल कर काम करना होगा नहीं तो डायन हम पर हमला कर सकती है या करवा सकती है।  

गाँव वाले - हममे क्या करना होगा। 

शाजिया - इन २५ औरतो को गाँव के २५ घरो को देखना होगा। जिस भी औरत या लड़की को घर वाले चुनेगे वो  उनके साथ  रहेगी। इनसे कोई भी गलत बात या व्यवहार नहीं करेगा। इनके साथ बिलकुल आम तरीके से रहेंगे। नहीं तो डायन इन पर फिर हावी हो जाएगी किसी भी वक़्त।  

मेँ दिन में दो बार हर घर आउंगी और इन डायनो को कुछ वक़्त में लिए अपने साथ ले जाउंगी पूजा कराने। बाबा जी ने पूजा की विधि बना ली है। 

गाँव वाले - और क्या होगा अगर ये एक महीने में भी डायन के वश से बहार नहीं आई तो।

शाजिया - तो फिर आप सब जैसा चाहे कर सकते है। 

गाँव वालो ने शाजिया की बात मान ली। शुरू में डायन के साया ने इन औरतो और बच्चियों को थोड़ा परेशान किया, वह थोड़ा बेकाबू होती रही कभी कभी। पर १५ दिन में ही डायन का साया आना कम हो गया। 

आज एक महीना ख़तम होना था। वैसे तो सारी औरतो और बच्चियों डायन के साये से बहार थी पर एक सिमा नाम की औरत अभी की डायन के वश में थी। 

गाँव वाले - ये सिमा डायन को बहार करो गाँव से। बाकि सब डायन के साये से मुक्त है अब।  

शाजिया - ये भी डायन के साये से मुक्त हो जाएगी। बस थोड़ा और वक़्त दीजिये हममें  

गाँव वाले - इस डायन को तो मर ही डालो। आज ही ये किस्सा ख़तम हो जाएगा। 

शाजिया - अरे आप लोग शान्त हो जाइये। बात समझिये। 

गाँव वाले -  इस डायन को अब हम और बर्दाश नहीं कर सकते।  मर डालो इसे। (गुस्से में )

शाजिया - बस.... (ऊंची आवाज में )
               डायन ये औरते और बच्चिया नहीं है !
               बल्कि हम लोग शैतान है, रक्षास है। किसी बेरहम जल्लाद से ज्यादा बत्तर है हम !
               इस औरतो या लड़कियों पर कोई डायन का साया नहीं है। बल्कि ये सब बीमार है !
               इन्हे "मास हिस्टीरिया" है। ये एक मानसिक बीमारी है। 
               इस बीमारी के कारण ही ये ऐसे बेसुध चीखती चिलाती है। 

आप लोगो ने देखा नहीं, ये सारी औरतो और लड़कियों या तो मजबूर है या बेसहारा। अगर इनके घर भी है तो इन पर कोई ध्यान नहीं देता। या तो इन्हे नजरअंदाज किया जाता है। इन्हे किसी चीज़ की तरह रखा जाता है, इंसान तो कोई मानता नहीं। इस अकेलेपन और बेबसी के कारण ही इन औरतो को ये बीमारी हो गयी। 

आप लोग अगर ध्यान दे तो, इनमे से कोई बेवा है, तो कोई अनाथ है। किसी का पति दूर-देश है, तो कोई नज़र-अंदाज की हुई बुजुर्ग है। 

बाबा जी - शाजिया ठीक बोल रही है। अगर हम दोनों आप लोगो को ये पहले बताते तो आप लोग शायद मानते नहीं। 

शाजिया - नीमो के किस्से ने इन सब के अंदर के डर को , और इनके अकेलेपन को बीमारी में बदल किया।  "मास हिस्टीरिया" में !

ये बीमारी एक से दूसरे में फैलती है। "मास" का मतलब का "भीड़"। ये एक मानसिक बीमारी है। ये एक साथ कई लोगो को होती है।  ये बीमारी अकेलेपन और अधूरेपन  के कारण होती है। 

बाबा जी - मैंने और शाजिया ने मिल कर इन औरतो का इलाज़ करने के लिए, ये एक महीने की विधि का बहाना बनाया। शाजिया ने इस बीमारी के बारे में पढ़ा और डॉ. निर्मल के साथ  मिल कर इलाज बनाया। डॉ. निर्मल ने  जरूरी  दवाएं  अलग-अलग  शेहरो  से मँगवाई। 

शाजिया - आप लोगो के प्यार और अपनेपन ने इन औरतो का आधे से ज्यादा इलाज कर दिया। रोज़ पूजा के बहाने मैं इनका चेक उप, हाल और दवाईयाँ लेती-देती रहती थी। 

सच मानिये तो इनका इलाज  हमने नहीं, आप गाँव वालो ने  किया है। अब  प्लीज (कृपया) इनको अपना भी लीजिये। 

गाँव वालो के चेहरों पर लज़्ज़ा और पछतावे के भाव थे, और इन औरतो के चेहरों पर सुकून। इन औरतो और बच्चियों की हिर्दय बह्व-विभोर हो गए थे। गांव वालो ने इन औरतो और बच्चियों को अपना लिया था, और इनने गाँव वालो को। सब अपने घर चले  जाते है। 

बाबा जी - डॉक्टर डायन (हस्ते हुए)। अपने तो पुरे गाँव का ईलाज कर दिया एक साथ। कैसा लग रहा है। 

शाजिया - अच्छा लग रहा है (सोचए हुई भाव के साथ बोली) 

बाबा जी -  क्या हुआ शाजिया, क्या सोच रही हो ??

शाजिया - (विचारपूर्ण भाव के साथ) इन परिस्थियों को देख-समझ कर मेरे मान में एक ख्याल आया है। 

बाबा जी - क्या शाजिया। 

शाजिया - हम अपनों को चलना सिखाते है, बोलना सिखाते है, पढ़ना-लिखना सिखाते है, पैसे कामना सिखाते है। पर हम सब को अकेले रहना क्यों नहीं सिखाते। 

बाबा जी - ऐसा विचार क्यों आया तुम्हारे मान में शाजिया। 

शाजिया - बाबा जी। इन औरतो को ये बीमारी इसलिए हुई क्यों की इन पर इनका अकेलापन हावी हो गया। ये बेसहारा थी, इसलिए ये सब हुआ इनके साथ। 

आज के वर्तमान समय में मुझे लगता है की हमें लोगो को अकेले रहना भी सीखना चाहिए। खुद से प्यार करना भी सीखना चाहिए। खुद के लिए जीना भी सीखना चाहिए। 

क्यों सही बोल रही हूँ न ??

बाबा जी शाजिया की बाते सुन्न कर वहाँ से मुस्कुराते हुऐ चले जाते है। 


कलम से
प्रियंका तिवारी



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Special Thanks to Dr. Pragati Gupta (Bhikangaon, Khargone (M.P)) for her guidance and knowledge about the curriculum of M.B.B.S. 

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Monday, November 2, 2020

सकारात्मक सोच और विद्यार्थी जीवन पर आसार एवम महत्व

सकारात्मक  सोच और विद्यार्थी जीवन पर आसार एवम महत्व 

हर व्यक्ति के जीवन चक्र का विद्यार्थी जीवन एक महवत्पूर्ण अंग है। विद्यार्थी जीवन में अर्जित किया होआ ज्ञान, ध्यान, चेतना और गुण एक व्यक्ति को उसके आगे के जीवन में उन्नति के पथ पर ले जाता है। विद्यार्थी जीवन हमेशा सकारात्मक सोच और विचारो से परिपूर्ण होना चाहिए। सकारात्मक सोच एक चुम्बक  की तरह है, वह सकारात्मक ऊर्जा को आपकी ओर कीचती है और अपने आभा-मंडल को और शक्तिशाली बनती है। विद्यार्थी जीवन एक व्यक्ति के जीवन काल का वह समय है जब वह अपने विचार और व्यक्तिव को बनता और सवरता है। 
 
एक सकारात्मक सोच वाला छात्र हमेशा अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता रहता है, चाहे उसके जीवन में कितनी परेशानिया या बढाए आये। सकारात्मक सोच बुद्धि विकास और व्यक्तिव विकास में सीढ़ी के सामान भूमिका निभाती है। सकारात्मक सोच रखने वाले छात्र का बुद्धि विकास उन्नत और बलशाली होता है जो आगे चलकर उसकी वयस्क जीवन में उसे मुश्किलों को आसानी से हाल करने की कला सिखाता है। इस कोविद महामारी के समय विद्यार्थियों को अपनी सोच सकारात्मक रखनी होगी तभी वह इस परिस्थिति में भी अपना विकास कर सकेंगे। कोविद महामारी को हराना है तो विद्यार्थियों को सकारात्मक विचार और दृष्टिकोण को अपनाना होगा।
 
एक उच्च इस्तर के विद्यार्थी जीवन का परिणाम, एक उज्वल भविष्य होता है। सकारात्मक सोच छात्र को अपने लक्ष्य से भटकने नहीं देती, बल्कि असफलता और कठिनाईयो में उन्हें दूगनी क्षमता से आगे बढ़ने को तत्पर बनती है। जब एक व्यक्ति अपने विद्यार्थी जीवन में ही अपनी क्षमताओं को कम आंकने लगता है तो ये उसके व्यक्तित्वा के विकास में बाधा डालती है, वह जीवन में आगे बढ़ कर हमेशा हर मुश्किल से हर मन्ना सिख जाता है। इस प्रकार के मनुष्य कभी सफलता नहीं पाते और समाज में अपनी एक बड़ी और शाषत पहचान नहीं बना पते है। ऐसी सोच का मूल कारण है सकारात्मक सोच की अनुपस्थिति। इसलिए सकारात्मक  सोच विद्यार्थी जीवन के मूल में इस्थापित होनी चाहिए। एक सकारात्मक सोच का विद्यार्थीअपने आगे के जीवन में नई चीजे, परिस्थितियों और प्रौद्योगिकीयों को जल्दी अपनाता, सिखाता और उनके साथ समायोजन बना लेता है। जीवन एक सदैव सीखने और जानने की प्रक्रिया है जो एक उन्नत विद्यार्थी ही जी सकता है। ये उन्नतवा आता है सकारात्मक सोच से।
 
भगवत गीता के अध्याय 6 श्लोक 5 में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को उपदेश दिया है;
 
"उद्धरेदात्मनाऽऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः।"
 
अर्थात अपने दवरा अपना उद्धार करे अपना पतन न करे क्योंकी आप ही अपने मित्र है और आप ही अपने शत्रु है। खुद का उद्धार और पतन एक व्यक्ति अपनी सोच से ही करता है इसलिए अपनी सोच को जीवन के प्रथम चरण अर्थात, विद्यार्थी जीवन से ही सकारात्मक बनना चाहिए। 

जिस प्रकार सूर्य अपने प्रकाश से अंधेर को दूर कर देता है उसी प्रकार सकारात्मक  सोच विद्यार्थी जीवन से मायूसी और डर को दूर कर देती है। ये सकारात्मक सोच ही थी जिसने रामेश्वरम जैसे छोटे शेहेर के एक लड़के को भारत का ग्यारवाँ (११) राष्ट्रपति बनाया, ये छात्र और कोई नहीं स्वा. डॉ. ऐ.पि.जे अब्दुल कलाम आजाद थे। स्वा. डॉ. ऐ.पि.जे अब्दुल कलाम आजाद बड़े ही निम्न स्तर के परिवार में जन्मे थे पर ये उनकी विद्यार्थी जीवन-काल में बनी सकारात्मक  सोच जिसने उन्हें एक महान व्यक्ति बनाया।  

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Friday, July 3, 2020

नमक के मजदुर और उनकी मजबूरी - कच्छ का रण


चेतना बेन : इस बार हम कच्छ के रण क्षेत्र, गुजरात जा रहे है और तुम भी चल रहे हो, अपना सामान गर्मी और मानसून के हिसाब से रख लो। 
राजू भाई : हम लोग वहाँ  के क्षेत्र में पाए जाने वाले पशु और  पक्षीयो पर अध्यन करेंगे। वह के नमक के मजदूरों के विकास कार्यो की रणनीति पर भी विचार विमर्श और उसकी रूप रेखा निर्धारित करेंगे।
केतन : मैं वहाँ क्या करूँगा माँ। 
राजू भाई : तुम्हारे लिए एक अच्छा एक्सपीरियंस (अनुभव) होगा। 
चेतना बेन : तुम्हे पता है वहाँ दुनिया का एकलौता  वाइल्ड अस्स सैंक्चुअरी (जंगली गधा अभ्यारण्य) है,  "इंडियन वाइल्ड अस्स वाइल्डलाइफ सैंक्चुअरी"। 
केतन : हाँ पापा गधो को देखन अच्छा  एक्सपीरियंस (अनुभव) होगा। हहहह [ठहाके लगते हुए]
राजू भाई : ओह्हो केतन, तुमको वह कितना देखने-समझने को मिलेगा। वहाँ का कल्चर (सभ्यता) , लोग, रेहन-सेहेन, वाइल्डलाइफ (वनप्रजाति), एट्सेटरा (आदि)। 
चेतना बेन : केतन थिस इस इम्पोर्टेन्ट फॉर योर स्टडीज, एंड इतस फाइनल (ये तुम्हारी पढ़ाई के लिए जरुरी है और ये सुनिश्चित हो गया है)
केतन : ओके माँ आप अब गुस्सा मत हो। मैं वहाँ के बारे में रिसर्च (अन्वेषण) कर लेता हूँ। 
राजू भाई : कुछ इंडियन क्लोथ्स (भारतीय वेशभूषाएं) रख लेना।  
केतन :आप लोग वह ले जा कर मेरी शादी तो नहीं करा रहे न। लुक आई हैव ऐ गर्लफ्रेंड (मेरे पास  प्रेमिका है) [व्यग के स्वर में ]
चेतना बेन : क्या वो बेचारी अभी भी है, मुझे लगा तुझ जैसे पागल से परेशान हो कर देश छोड़ कर भाग  गई। इसलिए तेरी दुल्हन एक प्यारी सी हिंदुस्तानी  संस्कारी और धीरज वाली लड़की ला रहे थे, क्योकि वो ही तुम जैसे पागल के साथ उम्रभर निभा सकती है। [व्यग के स्वर में ]
केतन : हाँ मम्मी जैसे आप पापा के साथ हो।  [व्यग के स्वर में ]
 राजू भाई : एएए .... केतन अपने बिच में मुझे क्यों घसीट रहे हो। बस बस और नहीं। 

जैसा की आप लोगो ने देख ही लिया होगा मेरे माँ-पापा कैसे मुझे कच्छ, गुजरात ले जाने पर उतारू है। ये तो साफ़-साफ़ जबरदस्ती है। पर क्या करू माँ-बाप है, मानना तो होगा। खेर मेरा नाम केतन मेहता है। मैं और मेरा परिवार लॉस एंजेल्स, कलिफोनिअ में रहता है। मैं "यूनिवर्सिटी ऑफ़ साउथर्न कलिफोनिअ" से जर्नलिज्म (पत्रकारिता) पढ़ रहा हूँ। मेरी माँ "चेतना बेन मेहता" और पापा "राजू भाई मेहता" पेशे से ज़ूलॉजिस्ट है और साथ ही साथ सोशल एक्टिविस्ट (सामाजिक कार्यकर्ता) है। वह यहाँ और इंडिया (भारत) के कई जगहों में अपना सोशल वेलफेयर (समाज कल्याण) का काम करते है। वह बचपन से मुझे अपने इंडियन टूर्स (भारतीय यात्राओं) में साथ ले जाते रहे है ताकि मैं अपने देश को जानू, उसकी सभ्यता को समझू। आज भी इंडिया (भारत) में इनका दिल बस्ता है और ये हर हिंदुस्तानी की हिर्दय संवेदना है। खेर एक बात तो है गुजरात की गर्मी सहना आसान नहीं होगा। मैं पहले भी गुजरात जा चूका हूँ और बीमार हो कर लौटा हूँ। क्यों की मैं बचपन से लॉस एंजेल्स में रहा हूँ। खेर मम्मी-पापा मुझे फिर भी वह ले जाएंगे ताकि मैं अपनी मिटी से जुड़ा राहू।

चेतना बेन : केतन तुम्हारी कच्छ के रण क्षेत्र की रिसर्च (अन्वेषण) कैसी चल रही। मुझे उम्मीद है तुम अपना डाक्यूमेंट्री प्रोजेक्ट वही पर बनाओगे। 
केतन : सच में माँ मुझे पता नहीं था वहाँ पर इतना सब देखने को है। आईएम रियली एक्ससिटेड नाउ (मैं अब वास्तव में उत्साहित हूँ ) मैं वहाँ  की बायोलॉजिकल डाइवर्सिटी (जैविक-विविधता) देखना चाहता हूँ। मैं जानना चाहता हूँ की वहाँ  के अगरिया समुदाय के नमक के मजदूरों या किसान  कैसे रहते है इतनी परेशानियों के बिच और इतने कम पैसे में। 
चेतना बेन : तुम्हे जानना चाहिए, जरूर जानना चाहिए [मायूसीभरे स्वर में वह ये बोलते हुए चली जाती है ]। 
  
२० (२०) नवम्बर, आखिर वो दिन आ गया। हम ध्रांगधरा जो लगभग ४५ (45) किमी की दुरी पर "इंडियन वाइल्ड अस्स वाइल्डलाइफ सैंक्चुअरी" पहुँच गए है। यहाँ का तापमान लगभग ३०-३५ (30-35) डिग्री है जो की अम्म तौर के तापमान से कम है। हमने पास में ही एक होटल लिया, वह से गाड़ी से कच्छ के रण के लिए निकले। एक बड़े ही प्यारे से मड-हाउस (मिट्टी का घर) में हमने अपने आने वाले एक महीने का बसेरा बसाया जो सैंक्चुअरी से कुछ किमी दुरी पर है। सैंक्चुअरी का क्षेत्रफल ४९५४ (4954) वर्ग किमी है और यहाँ आते ही पापा और मम्मी अपने कामो में लग गए। माँ-पापा ने अपना प्लान (योजना) तो घर पर ही बना लिया था और आते ही उसमे लग गए। हम सैंक्चुअरी के क्षेत्र में घूमते हुए जानवरो और पक्षियों को देखते और साथ में माँ-पापा अपना अध्यन से जुड़े काम करते रहते है। पर न जाने वह इस बार कुछ अलग ही खोज रहे है समझ ही नहीं आ रहा, जैसे किसी अपने की तलाश में है। मैं कोई मनोविज्ञानी नहीं, पर उनकी बेचैनी साफ़ देख और समझ सकता हूँ, शायद वह मुझे बताना नहीं चाहते।

रण  का इकोसिस्टम (पारिस्थितिकी तंत्र) बड़ा उन्नत है। माँ-पापा हर २-३ दिन में यहाँ के अगरिया समुदाय के नमक के मजदूरों से मिलते है जिनके विकास के लिए वह कई सालो से काम कर रहे है। उनके स्वयं सहायता समूह के कामो का जाएजा लेना, उनको जागरूक करना, महिलाओ को काम सिखावना, स्वस्थ सम्बन्धी सेवाएं दिलवाना और उनको कैसे सहयता राशि मुहैया कराए, आदि विषियो पर बात-चित जैसे काम में माँ-पापा लगे रहते। इन नमक के मजदूरों और किसानो की हालत बड़ी दयनीय है। माँ-पापा के सामाजिक कार्य देख मुझे बहुत सौभाग्यशाली और गर्वान्गिता महसूस होता है की मैं उनका बेटा हूँ। इसी बिच हम अस्स-पास के इलाक़े में भी घूमने जाते रहते है। ये अगरिया समुदाय के नमक के मजदूर और किसान हमें अपने घर भी बुलाते रहते है और हम जाते भी है। कई लोग माँ-पापा को बड़े अच्छे से जानते है। पर अक्सर माँ-पापा मुझसे  चुप उनसे बात करते और एक नाम की खोज में लगे रहते है, "शारदा बेन खखाड़िया"

इस रण की संस्कृति भी बड़े लुभावानि और विविद है। हम जब रण उत्सव में गए तो मैं तो हैरान ही रह गया। मैं तो समझ ही नहीं पा रहा हूँ की इस डाक्यूमेंट्री मे क्या-क्या डालू, यहाँ का लोक गीत-संगीत और नित्य जैसे गजियो या रंगीन विषभूषा या लोक कला। और खाने की तो बात मत पूछो, कढ़ी-रोटला, चक्रदा पकवान और पता नहीं क्या-क्या। मुझे हर एक जाते पल के साथ इस मीठी से प्रेम होता जा रहा है। लेकिन न जाने इस वयस्तत में भी माँ-पापा किसे खोजने में लगे है। 

सैंक्चुअरी और रण के क्षेत्र में हमने कितने पशु, पक्षी और वनस्पति देखे, मुझे तो सब के नाम भी याद नहीं हुए। वहाँ इतने सरे है जैसे जंगली-गधो, नील-गाय, लकड़बग्धा आदि। "इंडियन वाइल्ड अस्स वाइल्डलाइफ सैंक्चुअरी" के एशियाई जंगली गधे, जिन्हे यहाँ के लोग "खुर" बोलते है की चल किसी मदमस्त हाथी से कम नहीं। ये गधे एक विलुप्त हो रही प्रजाति के है इसलिए इन्हे इतना संरक्षण हासिल है। आपको बताओ तो यहाँ २०० (२00) तरह के पक्षी देखे जा सकते है और उसमे से कई प्रवासी पक्षी है जैसे यूरोपीय रोलर (नीलकंठ), लैसर फ्लोरिकन (खरमोर) आदि। जितने सूंदर और विशाल फ्लेमिंगो (मराल) मैंने यहाँ देखे शायद ही कही देखे होंगे। इस बंजर वीराने में एक अलग ही सुंदरता है और यही मिलते है नमक के खेत।

ये वही  नमक के खेत है जहाँ पर अगरिया समुदाय के नमक के मजदूरों या किसान ५० (50) डिग्री की कड़ी धुप में ८ (8) महीने कड़ी मेहनत करते है नमक बनने के लिए। इस नमक की खेती में इनका पूरा शरीर और उम्र गाल जाती है, एक औसतन नमक के मजदूरों या किसान की उम्र केवल ५०-५५ (50-55) वर्ष ही होती है। इनके पुरे शरीर पर नमक का घातक आसार होता है, ये वक़्त के साथ उम्र से पहले अंधे होने लगते है , इनके पुरे शरीर की त्वचा रूखी और बेजान हो जाती है। इनको कई बीमारिया भी हो जाती है, खास तौर पर त्वचा सम्बन्धी। यहाँ तक की इनके हाथ और पैर नमक के खेतो में काम करते-करते सार्ड जाते है।  इस पेशे से जुड़ी हुई सबसे भयावल सच्चाई इनके अंतिम संस्कार के वक़्त दिखती है। इनके पैर देह-संस्कार के वक़्त नहीं जलते क्यों की वह सर्ड कर सख्त हो जाते है, एक पत्थर के सामान। नमक के मजदूरों के लिए यहाँ एक कहावत है की, "इनके शरीर में खून नहीं नमक बेहता है"। और इतनी मेहनत का इन्हे क्या मिलता है, जरा सोचिये। कोई हज़ारो-लाखो रुपये नहीं, बल्कि ६०-७० (60-70) रुपये पर १००० (1000) किलो। बिचौलिये, व्यापारी और बड़ी कम्पनिया सारा मुनाफा कमाती है। अक्सर ये  नमक के मजदूर और किसान घाटे में ही अपना नमक बेचते है क्योकि ज्यादातर पैसा तो इनके जनरेटर के तेल में ही चला जाता है। ये तपती धुप में अपने हाथो से कितने कुँए खोदते है तब जा कर कही किसी एक कुँए में इन्हे नमक का पानी मिलता है। उस पानी को ८ (8) महीने तक खरोंचते है तब जा कर नमक बनता है। यहाँ इनके बच्चो के लिए रण में कुछ २-३ (2-3) प्राथमिक विद्यालय है, जो एक मीठी की झुग्गी में लगते है। लेकिन उनका भविष्य पता नहीं कहा है। अगर कुछ किया न गया तो ये बच्चे भी अपने माँ-बाप की तरह नमक के मजदूर ही बनेंगे, क्योकि इन लोगो को और कोई काम आता भी तो नहीं है। 

[शाम का वक़्त है और सब साथ में बैठे है]
 

चेतना बेन : "शारदा बेन" मिली क्या ? [धीमी आवाज में बोली]
राजू भाई : नहीं, पर हम खोज रहे है। 
केतन : ये  "शारदा बेन खखाड़िया" मेरी दुल्हन है क्या ? हहहह [ठहाके लगते हुए]
चेतना बेन : तुम्हे जल्दी पता चल जाएगा। [गंभीर स्वर में] 
केतन : माँ इन नमक के मजदूरों या किसानो के बच्चे कैसे रहते है ?
चेतना बेन : बेटा.......  बीमार, कुपोषित और शिक्षा-विहीन। 
केतन : आप इन बच्चो के लिए कुछ नहीं करते ?
राजू भाई : हम इन बच्चो को स्वास्थ सुविधा , शिक्षा प्रायोजन और अडॉप्शन (दत्तक ग्रहण/गोद लेना) की सुविधा दिलवाते है। ताकि इन्हे एक अच्छा भविष्य मिल सके। 
चेतना बेन : आगे तुम्हे ही ये सब सम्हालना है चेतन। 
राजू भाई : ये तुम्हारी तो जमीन है [वाणी को विश्राम देते हुए ]
चेतना बेन : इनके माँ-बाप अपने बच्चो को हर हाल में इस हर-पल मरती जिंदगी से निकलना चाहते है। वह इसके लिए अपने जिगर के टुकड़े को किसी और को भी देने को तैयार हो जाते है। [ये बोलते -बोलते वो रोने लगी]

माँ को इतना भावुक मैंने बहुत कम देखा है। पापा ने उन्हें जैसे-तैसे शांत किया। शायद उन्हें मेरा ख्याल आ गया, मैं भी उनकी गोद ली हुई सन्तान हूँ। रात के वक़्त हम सब खाना खा कर बैठे थे इतने में कोई पापा से मिलने आया। पापा के माँ से बोला ........ 

राजू भाई : "शारदा बेन खखाड़िया" मिल गई। उनकी तब्बीयत बहुत ख़राब है, शायद अब वह कुछ दिन की मेहमान है। [गंभीर स्वर में]
चेतना बेन हम कल ही उनके पास जाऐंगे। अब ये बोझ मुझसे और नहीं झेला जाता।  [धीमी आवाज में बोली]
केतन : कौन है ये "शारदा बेन खखाड़िया", कौन लगती है वह हमारी और क्यों ये इतनी खास है।


[विराने में एक सन्नाटा छः गया ]

केतन : बोलो न माँ। 
चेतना बेन : वह तुम्हारी माँ है। बेटा हमने तुम्हे उनसे गोद लिया था पर वह नहीं  चाहती थी की तुम्हारे मन में कोई हीन भवाना आये या तुम हमे कभी भी पराया समझो इसलिए उन्होंने हमसे वचन लिया था की तुम्हे ये बताया जाए, की तुम्हारे माँ-पापा एक्सीडेंट में मर गए।  [रोते हुए बोली ]
राजू भाई : वह चाहती थी की तुम्हे इस बात का कभी पता न चले, पर हम तुम्हे एक बार उनसे मिलवाना चाहते थे। पर बेटा उन्हें  पता न लगने देना की तुम्हे सब पता है , उनकी तपस्या ख़राब मत करना।

ये सब सुनने के बाद मैं निःशब्द खड़ा हूँ , समझ ही नहीं आ रहा क्या बोलू। उस माँ  की मज़बूरी को समझू या इस माँ का प्यार। मैं अपने अनजान कल और आज के बिच खड़ा हूँ। मैंने माँ को गले से लगा लिया और चुप कराया। सारी रात छत की ओर देखता रहा। मन में इतने सवाल, इतनी बेचैनी है। क्या ये नमक एक मजदूर को इतना मजबूर कर देता है। 

सुबह होते ही हम गाड़ी से निकले, पुरे रस्ते किसी ने कोई बात नहीं की। इतनी चुप्पी की हवा की आवाज भी शोर लग रही है। जैसे ही वहाँ पहुंचे तो हमें एक झोपड़ी दिखी, एक आदमी वहाँ हमारा इंतजार कर रहा था। अंदर जा कर देख तो एक औरत खटिया पर लेटी हुई है। माँ उन्हें देखते ही पहचान गयी। उनकी तब्बियत काफी खराब है। आँखो से साफ़ दिखाई नहीं देता उनको, हाथ और पैर सर्ड गए है।

चेतना बेन : कैसी हो शारदा बेन। 

उनने हाथ हिला कर इशारा किया की ठीक हूँ। माँ-पापा उनकी खटिया के सामने खड़े हो गए और मुझे उनके पैर छूने को बोला। उनके पैरो को हाथ लगाया तो समझ आया की कैसे बेजान पत्थर सामान हो गए है नमक से। मैं  उनके पास बैठ गया। 

चेतना बेन : शारदा बेन अपने बेटे "केतन" को तुमसे मिलवाने लाई हूँ, उसे आशीर्वाद नहीं दोगी। तुम्हारे पास बैठा है। 

ये सुनते ही उनके चेहरे पर एक मुस्कान छा गयी और आँखो में आँसू आ गए। उनने मेरा हाथ अपने हाथ में ले लिया। उनके हाथ का रूखापन और कपन मैं महसूस कर सकता हूँ। वह बेचारी मुझे देखना चाह रही है पर इन आधी अंधी आँखों से उन्हें कुछ साफ़ नज़र नहीं आ रहा। मैं थोड़ा उनके तरफ झुका तो उन्होंने अपना हाँथ मेरे सिर पर रख, मुझे आशीर्वाद दिया। शायद जितनी शरीर में जान है उसका पूरा जोर लगा कर बोली, "जीते रहो" मुझे देख तो पा नहीं रही है इसलिए अपने हाथो से मेरे चेहरे और फिर कंधे से होते हुए मेरे हाथों को टटोलने लगी। मानू मेरी आकृति अपने मान की आँखों से देख रही हो। हम सब चुप-चाप उन्हें देख रहे है। इस क्षण में एक अलग ही आत्मीयता और संतोष है। कुछ देर बाद वह आदमी जो झोपडी के बाहर हमारा इंतज़ार कर रहा था हम लोगो से बोला, "अब आप लोग आराम से जाइये इतनी देर इस गर्मी में रहना आपके लिए ठीक नहीं"। उनने (शारदा बेन) मेरे हाथ को टटोलते हुए मुझे जाने का इशारा किया। मैं उठा और बाहर जाने लगा। फिर अचानक ही मेरे मन में कुछ आया और मैं पलट कर बोला.........

केतन : माँ जी अपना ध्यान रखिएगा।
 
ये सुनते ही वह फिर मुस्कुराई, जैसे परम सुख मिल गया हो और हाँथ मेरे ओर हिलाया। वह मुस्कुराता चेहरा अपने मन में बासा कर मैं वहाँ से निकला। इस सफर ने मुझे एक नया इंसान बना दिया है और इन नमक के मजदुर और उनकी मजबूरी का हाल देखा दिया है।



कलम  से 
प्रियंका तिवारी 

Disclaimer :

This is a work of fiction. Names, characters, businesses, places, events and incidents are either the products of the author’s imagination or used in a fictitious manner. Any resemblance to actual persons, living or dead, or actual events or any other literary material, called by any other name, is purely coincidental. The story is purely for entertainment purpose and the author has no intention to hurt the sentiments & emotions of any individual or public at large.

 

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सफर और मंजिल

सफर और मंजिल ये मेरी पहली सोलो ट्रिप (अकेल सफर) होने वाली है। इतनी मुश्किल से इस सफर के लिए सब प्लान (प्रबन्ध) किया  है और निकलने को उत्सुक ...