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Monday, November 2, 2020

सकारात्मक सोच और विद्यार्थी जीवन पर आसार एवम महत्व

सकारात्मक  सोच और विद्यार्थी जीवन पर आसार एवम महत्व 

हर व्यक्ति के जीवन चक्र का विद्यार्थी जीवन एक महवत्पूर्ण अंग है। विद्यार्थी जीवन में अर्जित किया होआ ज्ञान, ध्यान, चेतना और गुण एक व्यक्ति को उसके आगे के जीवन में उन्नति के पथ पर ले जाता है। विद्यार्थी जीवन हमेशा सकारात्मक सोच और विचारो से परिपूर्ण होना चाहिए। सकारात्मक सोच एक चुम्बक  की तरह है, वह सकारात्मक ऊर्जा को आपकी ओर कीचती है और अपने आभा-मंडल को और शक्तिशाली बनती है। विद्यार्थी जीवन एक व्यक्ति के जीवन काल का वह समय है जब वह अपने विचार और व्यक्तिव को बनता और सवरता है। 
 
एक सकारात्मक सोच वाला छात्र हमेशा अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता रहता है, चाहे उसके जीवन में कितनी परेशानिया या बढाए आये। सकारात्मक सोच बुद्धि विकास और व्यक्तिव विकास में सीढ़ी के सामान भूमिका निभाती है। सकारात्मक सोच रखने वाले छात्र का बुद्धि विकास उन्नत और बलशाली होता है जो आगे चलकर उसकी वयस्क जीवन में उसे मुश्किलों को आसानी से हाल करने की कला सिखाता है। इस कोविद महामारी के समय विद्यार्थियों को अपनी सोच सकारात्मक रखनी होगी तभी वह इस परिस्थिति में भी अपना विकास कर सकेंगे। कोविद महामारी को हराना है तो विद्यार्थियों को सकारात्मक विचार और दृष्टिकोण को अपनाना होगा।
 
एक उच्च इस्तर के विद्यार्थी जीवन का परिणाम, एक उज्वल भविष्य होता है। सकारात्मक सोच छात्र को अपने लक्ष्य से भटकने नहीं देती, बल्कि असफलता और कठिनाईयो में उन्हें दूगनी क्षमता से आगे बढ़ने को तत्पर बनती है। जब एक व्यक्ति अपने विद्यार्थी जीवन में ही अपनी क्षमताओं को कम आंकने लगता है तो ये उसके व्यक्तित्वा के विकास में बाधा डालती है, वह जीवन में आगे बढ़ कर हमेशा हर मुश्किल से हर मन्ना सिख जाता है। इस प्रकार के मनुष्य कभी सफलता नहीं पाते और समाज में अपनी एक बड़ी और शाषत पहचान नहीं बना पते है। ऐसी सोच का मूल कारण है सकारात्मक सोच की अनुपस्थिति। इसलिए सकारात्मक  सोच विद्यार्थी जीवन के मूल में इस्थापित होनी चाहिए। एक सकारात्मक सोच का विद्यार्थीअपने आगे के जीवन में नई चीजे, परिस्थितियों और प्रौद्योगिकीयों को जल्दी अपनाता, सिखाता और उनके साथ समायोजन बना लेता है। जीवन एक सदैव सीखने और जानने की प्रक्रिया है जो एक उन्नत विद्यार्थी ही जी सकता है। ये उन्नतवा आता है सकारात्मक सोच से।
 
भगवत गीता के अध्याय 6 श्लोक 5 में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को उपदेश दिया है;
 
"उद्धरेदात्मनाऽऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः।"
 
अर्थात अपने दवरा अपना उद्धार करे अपना पतन न करे क्योंकी आप ही अपने मित्र है और आप ही अपने शत्रु है। खुद का उद्धार और पतन एक व्यक्ति अपनी सोच से ही करता है इसलिए अपनी सोच को जीवन के प्रथम चरण अर्थात, विद्यार्थी जीवन से ही सकारात्मक बनना चाहिए। 

जिस प्रकार सूर्य अपने प्रकाश से अंधेर को दूर कर देता है उसी प्रकार सकारात्मक  सोच विद्यार्थी जीवन से मायूसी और डर को दूर कर देती है। ये सकारात्मक सोच ही थी जिसने रामेश्वरम जैसे छोटे शेहेर के एक लड़के को भारत का ग्यारवाँ (११) राष्ट्रपति बनाया, ये छात्र और कोई नहीं स्वा. डॉ. ऐ.पि.जे अब्दुल कलाम आजाद थे। स्वा. डॉ. ऐ.पि.जे अब्दुल कलाम आजाद बड़े ही निम्न स्तर के परिवार में जन्मे थे पर ये उनकी विद्यार्थी जीवन-काल में बनी सकारात्मक  सोच जिसने उन्हें एक महान व्यक्ति बनाया।  

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Saturday, May 16, 2020

बचपन की अनजान सीख


"माँ अपने मुझे बोलना कैसे सिखाया", १0 (दस) साल के माधव का सवाल सुन कर माँ हस्स पड़ी। माँ को हस्ता देख माधव का कौतूहल और बढ़ गया। "बोलो न माँ, मुझे बोलना कैसे सिखाया"। माँ हस्ते होए बोली, "अरे बड़ो को बोलते-सुनते हुए  देख कर खुद सीख गए"। माँ का जवाब उस उम्र में ठोस नहीं लगा था। मन ही मन सोच रहा था, "फिर गणित क्यों नहीं खुद-बा-खुद समझ आती"। और नहीं तो क्या, माँ बाबा की गणित बहुत अच्छी थी पर मेरे दिमाग में तो ढेला नहीं घुसता था। खेर वक़्त के साथ ये सवाल भी सालो के तरह हवा में बेह गया। अब दुनिया-दरी की चक्की चला रहे थे, वही रोज़ का काम, दफ्तर, घरवालो और मेरे यश। यश मेरा प्यारा भतीजा है। बचपन से वह मेरा लाडला है, उसे लोग अपने पापा के नाम से कम मेरे नाम से ज्यादा जानते है। उसकी घर में इधर-उधर चेहेल चलती रहती है बच्चा तो है, वो नहीं करेगा तो कौन करेगा। यश हमेशा मेरे साथ रहता है। जब भी मैं घर पर रहता, यश मेरे साथ ही होता। मेरे साथ ही उठता-बैठता, खता-पीता, खेलता-कूदता, हम दोनो तो एक दूसरे के साये जैसे थे। भाभी हमेशा कहती रहती, "देवर जी यश आपसे सब सीख रहा है"। पर कौन इन बातो पर  गौर करता है।

                     ये प्राइवेट नौकरी, उफ्फ काम में ही सारा दिन निकल जाता है। और-तो-और मालिक खुद को भगवान से कम नहीं समझता। सारा हफ्ता एड़ी घिसने में निकल जाती है और रविवार कपडे धोने और प्रेस करने में। भईया का बॉस तो बहुत ही चांडाल है, इतना काम करता है। भईया काफी तनाव में रहते है, ऑफिस के काम से  ज्यादातर शहर से बहार ही रहते है और भाभी घर सम्हालती है। इसी कारण भईया-भाभी में काफी कहा-सुन्नी भी होने लगी है। पर फिर दोनों सब बना भी लेते है। खेर मैं तो यश के लिए खुश था, अब स्कूल जो जाने लगा है। बड़ी बड़ी बाते भी करने लगा है, एक दिन कहता है "चाचा जब मैं बड़ा हो जाऊँगा तो पापा को ऑफिस नहीं जाने दूंगा उन्हें सब सुख घर में ला दूँगा"। इतनी प्यारी बाते मनमोह लेती है, मेरे लिए तो खिलौना है यश, सब टेंशन-तनाव भूल जाता हूँ उसके आगे। अरे प्राइवेट नौकरी मेरी भी है तनाव मुझे भी है। लेकिन मैं तो बढ़िया घूमने निकल जाता हो जब मन होता है और देर रात में वापस आता हू, भइया-भाभी गुस्सा करते है तो उल्टा जवाब दे देता हूँ जब ज्यादा हो जाता है। अरे क्या करू सहनशक्ति जो साथ छोड़ देती है।

नजाने क्यों आज कल यश ठीक से बात नहीं करता। बड़ा उत्खाडा-उत्खाडा रहता है। भाभी से भी बत्तमीजि करता है पर मैं समझा देता हूँ उनको "अरे बच्चा है गलती कर देता है जाने दो न भाभी"। पर अब यश कुछ ज्यादा ही बत्तमीजि और जिद्द करने लगा है, किसी को कुछ भी बोलता है। समझ नहीं आ रहा है यश को होआ क्या है। फिर एक दिन चाची जी घर आयी, भाभी ने पूरी समस्या उन्हें बताई। चाची जी जोर से ठहाका मार कर हांसी, "बिल्कुल अपने बाप पर गया है। बहुँ सुन्न ये न उसका शरीर कद छोड़ रहा न है इसलिए बच्चा चिरड-चिढ़ाता है, कुछ दिन की बात है फिर सब ठीक हो जाएगा। इसका बाप भी ऐसा ही था"। चाची जी की बात सुन्न कर भाभी को सुकून आया। महीनो हो गए अब यश की जिद्द और बत्तमीजि हद्द से ज्यादा बड गयी है हमने फैसला लिया की उसके स्कूल जाकर टीचर से बात करेंगे। हो सकता है गलत संगत में हो बच्चा हमारा। हमने टीचर से बात की, उन्होंने उसकी सीट बदल दी और बदमाश बच्चो से दूर कर दिया। टीचर ने प्यार से यश को समझाया भी और मानो पल भर में सब ठीक हो गया।

आज समाचार में देखा की किसी देश से अमेरिका की सेना ने कुछ छोटे-छोटे बच्चो को पकड़ा है। इन बच्चो को मानव बॉम्ब के तौर पर ईस्तमाल करना था। इन छोटे-छोटे बच्चो को तो ये भी नहीं पता था की वो क्या करने वाले थे। मन में ख्याल आया की कैसे सीखाते है ये सब बच्चो को, फिर यश का ख्याल आया। यश अब ६ (छे) साल का हो गया है और साइकिल चलाना सीख गया है। वो इधर उधर साइकिल से घूमता रहता है अक्सर। अब तो पूरी बच्चा पार्टी भी है उसके साथ।आज शाम मैं जब ८ (आठ) बजे घर पहुंचा तो मौहाल बड़ा चिंताजनक था, मुझे समझ ही नहीं आया की क्या होआ। मैंने भाभी से पूछा "क्या होआ भाभी"। बस मेरे सावल पूछने की ही देर थी और भाभी का बान्ध फट पड़ा। "माधव यश शाम को साइकिल चलने गया था अभी तक घर नहीं आया", ये बोल कर भाभी फुट-फुट कर रोने लगी। हमारे शहर में इस वक़्त बच्चो का अपहरण करने वाले गैंग सक्रिय थे। यश को खोजने में सब लग गए। रात ९ (नौ) बजे यश एक पडोसी को मिला और वह उससे घर ले आया। जैसे तैसे घर में सब की सासो में सास आयी। अब यश का साइकिल चलना भी बंद करवा दिया था और उसे घर के पास खेलने को समझा दिया था। यश प्यार से हर बात मान है।

हमारे देश में सड़क पहले बनती है और फिर ये फ़ोन कंपनी वालो को याद आया है की तार डालना तो भूल ही गए। और फिर अच्छी खासी नई सड़क को खोद कर बर्बाद कर देते है। साथ ही साथ बोनस में पानी की पाइप-लाइन भी तोड़ कर चले जाते है। हमारी कॉलोनी में ऐसा २ (दो) बार हो चूका था। जब सुबह लोगो के घरो में पानी नहीं आया तब इस बात का पता चला। इस बार हम सब ने तैय कर लिया था की ऐसा होआ तो इठः से इठः बजा देंगे। क्या-क्या करेंगे यही हम कॉलोनी वाले आपास में बात कर रहे थे, यश भी साथ था। बड़ी गरमा-गर्मी वाली चर्चा थी, सब आक्रोश से भरे हुए थे। अचानक अगली सुबह यश दौड़ते होए मेरे पास आया, उसके एक हाथ में डंडा और दूसरे हाथ में चाक़ू था। वह चिलाते होए बोला  "चाचा वह लोग आ गए, चलो हाथ-पाओ तोड़ देंगे, चाक़ू मार देंगे"। ये सुनते ही मेरे होश उड़ गए, ये बच्चा क्या बोल रहा है इसे पता भी है। मैंने बाहर जा कर देखा तो फ़ोन कंपनी वाले सड़क खोदेने आये थे। सारा मामला समझ आ गया मुझे और मन आत्मगिलानी से भर गया। ये उसे मैंने अनजाने में सिखाया था, वह मासूम तो जनता भी नहीं की अगर किसी को चाकू मार दिया तो क्या होगा। ये सब जो भी यश कर रहा था वो उसे हम सब ही तो अनजाने में सिखा रहे थे। वो बत्तमीजि-उत्खाडापन भइया-भाभी के बीच की कहा-सुन्नी और झगाड़े थे। वो जिद्द भइया और मेरा तनाव था, और वो रात में उसका साइकिल से दूर घूमना मेरी मनमौजी थी।  यश ने कुछ नहीं किया था हमने उसे सिखाया था। अब मुझे उन बच्चो की भी मानुइस्थिति समझ आयी जिनके बारे में न्यूज़ में सुन्ना था। इसलिए बड़े बोलते है की बच्चो के सामने अच्छे से बर्ताव करे, अच्छा बोले।

                                एक पाल में सब समझ आ गया, ये तो बचपन की अनजान सीख है। जो बच्चे देखते सुनते है घर में वही तो वह बनते है। हमें यश की टीचर से नहीं खुद से बात करनी थी। मुझे, भईया और भाभी को यश के आसपास एक अच्छा मौहाल बनना था, ना की उसे उसके दोस्तों से दूर करना था। मुझे यश के सामने एक अच्छा उद्धरण बनना चाहिए था, ना की उसकी साइकिल की सैर बंद करनी चाहिए थी।आज माँ का वो जवाब जो १0 ( दस) साल के माधव को ठोस नहीं लगा था, बिलकुल इस्पष्ट हो गया था। अनजाने में हम अपने घर के बच्चे को कभी कभी गलत बाते और बर्ताव सिखा देते है और दोष उन पर या स्कूल वालो पर दाल देते है। मेरा तो पता नहीं पर आज यश ने मुझे जरूर कुछ अच्छा सीखा दिया था।

कलम से...... 

प्रियंका तिवारी  


 

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This is a work of fiction. Names, characters, businesses, places, events and incidents are either the products of the author’s imagination or used in a fictitious manner. Any resemblance to actual persons, living or dead, or actual events or any other literary material, called by any other name, is purely coincidental. The story is purely for entertainment purpose and the author has no intention to hurt the sentiments & emotions of any individual or public at large.

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Taxolawgy With Priyanka Tiwari: नमक के मजदुर और उनकी मजबूरी - कच्छ का रण

Taxolawgy With Priyanka Tiwari: बाबु जी की आखिर सहेली

                                                 

Thursday, October 17, 2019

बाबु जी की आखिर सहेली

जिंदगी की भाग दौड़ में कब अपने दूर चले जाते है पता ही नहीं चलता। मेरा नाम केशव है और आज मेरे पिता जी का निधन हो गया। पिता जी को मैं प्यार से "बाबु जी" बुलाता था। मेरे बाबु जी एक रिटायर्ड प्रोफेसर थे और उम्र के सत्तरवें (७०) साल में थे। मेरी माता जी का निधन ५ (पांच) साल पहले ही हो गया था ,तब से बाबु जी अपने परम मित्र घनशयाम चाचा के सहारे थे पर उम्र के साथ वह भी चले गए। मैं और मेरी पत्नी नौकरी पेशा है और अपने परिवार की भौतिक जरूरतों को पूरा करने में दिन बेता देते है। मेरे परिवार में केवल तीन (३) लोग थे कल तक; बाबु जी, मैं और मेरी पत्नी राधा । हमने अभी तक संतान नहीं की क्यों की वक़्त और पैसे दोनों कम थे।

बाबु जी उम्र के इस पड़ाव में भी एक मिलनसर और ज़िंदादिल व्यक्ति थे। माँ और घनशायम चाचा के जाने के बाद वह अकेले थे पर जब भी किसी से मिलते, तुरंत घुलमिल जाते थे। कहते है एक बच्चे और बूढ़े में कोई अंतर नहीं होता, ये उन्हें देख कर साफ़ समझ आता था। हर उम्र के लोगो से दोस्ती कर लेते थे। शिक्षा के क्षेत्र से होने के कारण उनको ज्ञान और अनुभव दोनों ही बहुत था, काफी छात्र (स्टूडेंट्स) अक्सर उनसे मिलने और परामर्श लेने आते रहते थे। बाबु जी रोज़ सवेरे और शाम पार्क में टहलनें जाते थे और अक्सर वही स्टूडेंट्स से मिलने थे।

कुछ तीन (३) महीने पहले बाबु जी को पार्क में एक लड़की मिली, उसने बताया की वह सिविल परीक्षा की तैयारी कर रही है।  वह लड़की रोज़ बाबु जी से पार्क में मिलती और अलग अलग विषयो पर चर्चा करती। उसने बताया था की वह पास के गाँव के एक गरीब परिवार से है और शहर में कोचिंग के लिए आयी है। बाबू जी उसे हर तरह का मार्गदर्शन देते रहते थे। समय के साथ वह बाबू जी की प्रिय छात्रा और मित्र दोनों बन गयी थी। वह एक-दो बार घर भी आयी थी, और हम ये देख कर खुश थे की बाबू जी को समय काटने और बात करने के लिए कोई मिल गया था। "और नहीं तो क्या", हमारे पास वक़्त कहा था और वह एक स्टूडेंट ही तो थी। मैंने और राधा ने ध्यान से कभी उसे देखा भी नहीं था। ये कोई नई बात नहीं थी की कोई स्टूडेंट बाबू जी के साथ मिल-झूल रहा था। बाबू जी उसकी पढाई के लिए लगन देख बहुत प्रभावित थे। हम लोग यहाँ अपने काम में  मशरूफ थे और बाबू जी उसे पढ़ने में। समय अपनी गाती से चल रहा था। मेरी पत्नी अब उसे "बाबू जी की सहेली" बुलाती थी।

एक (१) महीने पहले बाबु जी सुबह पार्क से बहुत उदास घर आये। राधा ने कारण पुछा तोह कुछ जवाब ही नहीं दिया और कमरे में जा कर लेट गए। जब मैं रात में दफ़्तर से घर आया तो उसने मुझे ये सब बताया। तीनो रात में खाने की मीज पर साथ बैठे पर जाने क्यों एक अजीब बेचैनी थी बाबु जी के चेहरे पर, जैसे क्या खो गया हो। मैंने बाबू जी से पूछा "क्या होआ बाबु जी", वो बोले "सीमा दो (२) हफ्तो से मिलने नहीं आयी। मैं और राधा असमंजस में पड़ गए, "कौन है ये सीमा"। हमने बाबु जी की ओर संकोच से देखा, वो बोले "मेरी स्टूडेंट"। राधा ने हस्स कर बोला "आपकी सहेली", बाबू जी ने सिर हिलाया। हम दोनों ने बोला "आजाऐगी बाबु जी", और खाना खाने में लग गये, बाबु जी से उनकी चिंता का कारण पूछना याद ही नहीं रहा।

दो हफ्ते बाद, बाबू जी शाम की सैर से लौटे ही नहीं; रात के दस (१०) बज गए। मैं और राधा उनका इंतजार करते बैठे थे। वो आये और उदास सोफे पर बैठ गए। हम कुछ पूछते उससे पहले ही वो बोल पड़े, "वह सीमा एक ठग थी और मेरे दो लाख रूपए  ले कर भाग गयी। उसने बोला था उसके पिता जी का एक्सीडेंट हो गया है और ईलाज के लिए दो (२) लाख चाहिए। इन्शुरन्स कंपनी जब क्लेम देगी तो पैसे वापस कर देगी।  आज मैं उनके मकान पर गया तो पता चला वो भाग गयी है। मकान मालिक ने बताया की दो (२) महीने का किराया भी नहीं दिया। पुलिस थाने गया तो पता चला वह एक ठग थी और कई लोगो को अपनी बातो में फ़सा कर लाखो ठगे है उसने। सब को एक अलग नाम और कहानी सुना कर ठगा है उसने"।

मैंने गुस्से में बोला, "आप एक बार पूछ तो लेते"। वो बोले "जिंदगी में एक बार जरूर इंसान को उसका तजुर्बा धोखा दे देता है, मुझे भी दे गया। माफ़ करना बेटा पर तुम लोगो का वक़्त नहीं लेना चाहता था इसलिये पूछा नहीं"। ये कह कर वो अपने कमरे में चले गए। अब मैं और राधा एक अत्म गिलानी में चले गए थे, बाबु जी से बात करने का वक़्त ही नहीं था कभी हमारे पास, कितना अकेला कर दिया था हमने उन्हें।

कुछ देर बाद उन्होंने अपने कमरे से आवाज दी, "चलो अब सो जाओ कल ऑफिस जाना है"। हम अपने कमरे  में सोने चले गए। सवेरा तो हो गया पर बाबु जी फिर कभी नहीं उठे। आज उनकी चिता के सामने खड़ा मैं ये सोच रहा हूँ की इस विष्वास-घात ने, या हमारे दिए हुए अकेले-पन ने उन्हें हमसे हमेशा-हमेशा के लिए दूर कर दिया। अब ये उलझन सारी जिंदगी अनसुलझी रह जाऐगी।

 

कलम से...... 

प्रियंका तिवारी  


 

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