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Friday, July 3, 2020

नमक के मजदुर और उनकी मजबूरी - कच्छ का रण


चेतना बेन : इस बार हम कच्छ के रण क्षेत्र, गुजरात जा रहे है और तुम भी चल रहे हो, अपना सामान गर्मी और मानसून के हिसाब से रख लो। 
राजू भाई : हम लोग वहाँ  के क्षेत्र में पाए जाने वाले पशु और  पक्षीयो पर अध्यन करेंगे। वह के नमक के मजदूरों के विकास कार्यो की रणनीति पर भी विचार विमर्श और उसकी रूप रेखा निर्धारित करेंगे।
केतन : मैं वहाँ क्या करूँगा माँ। 
राजू भाई : तुम्हारे लिए एक अच्छा एक्सपीरियंस (अनुभव) होगा। 
चेतना बेन : तुम्हे पता है वहाँ दुनिया का एकलौता  वाइल्ड अस्स सैंक्चुअरी (जंगली गधा अभ्यारण्य) है,  "इंडियन वाइल्ड अस्स वाइल्डलाइफ सैंक्चुअरी"। 
केतन : हाँ पापा गधो को देखन अच्छा  एक्सपीरियंस (अनुभव) होगा। हहहह [ठहाके लगते हुए]
राजू भाई : ओह्हो केतन, तुमको वह कितना देखने-समझने को मिलेगा। वहाँ का कल्चर (सभ्यता) , लोग, रेहन-सेहेन, वाइल्डलाइफ (वनप्रजाति), एट्सेटरा (आदि)। 
चेतना बेन : केतन थिस इस इम्पोर्टेन्ट फॉर योर स्टडीज, एंड इतस फाइनल (ये तुम्हारी पढ़ाई के लिए जरुरी है और ये सुनिश्चित हो गया है)
केतन : ओके माँ आप अब गुस्सा मत हो। मैं वहाँ के बारे में रिसर्च (अन्वेषण) कर लेता हूँ। 
राजू भाई : कुछ इंडियन क्लोथ्स (भारतीय वेशभूषाएं) रख लेना।  
केतन :आप लोग वह ले जा कर मेरी शादी तो नहीं करा रहे न। लुक आई हैव ऐ गर्लफ्रेंड (मेरे पास  प्रेमिका है) [व्यग के स्वर में ]
चेतना बेन : क्या वो बेचारी अभी भी है, मुझे लगा तुझ जैसे पागल से परेशान हो कर देश छोड़ कर भाग  गई। इसलिए तेरी दुल्हन एक प्यारी सी हिंदुस्तानी  संस्कारी और धीरज वाली लड़की ला रहे थे, क्योकि वो ही तुम जैसे पागल के साथ उम्रभर निभा सकती है। [व्यग के स्वर में ]
केतन : हाँ मम्मी जैसे आप पापा के साथ हो।  [व्यग के स्वर में ]
 राजू भाई : एएए .... केतन अपने बिच में मुझे क्यों घसीट रहे हो। बस बस और नहीं। 

जैसा की आप लोगो ने देख ही लिया होगा मेरे माँ-पापा कैसे मुझे कच्छ, गुजरात ले जाने पर उतारू है। ये तो साफ़-साफ़ जबरदस्ती है। पर क्या करू माँ-बाप है, मानना तो होगा। खेर मेरा नाम केतन मेहता है। मैं और मेरा परिवार लॉस एंजेल्स, कलिफोनिअ में रहता है। मैं "यूनिवर्सिटी ऑफ़ साउथर्न कलिफोनिअ" से जर्नलिज्म (पत्रकारिता) पढ़ रहा हूँ। मेरी माँ "चेतना बेन मेहता" और पापा "राजू भाई मेहता" पेशे से ज़ूलॉजिस्ट है और साथ ही साथ सोशल एक्टिविस्ट (सामाजिक कार्यकर्ता) है। वह यहाँ और इंडिया (भारत) के कई जगहों में अपना सोशल वेलफेयर (समाज कल्याण) का काम करते है। वह बचपन से मुझे अपने इंडियन टूर्स (भारतीय यात्राओं) में साथ ले जाते रहे है ताकि मैं अपने देश को जानू, उसकी सभ्यता को समझू। आज भी इंडिया (भारत) में इनका दिल बस्ता है और ये हर हिंदुस्तानी की हिर्दय संवेदना है। खेर एक बात तो है गुजरात की गर्मी सहना आसान नहीं होगा। मैं पहले भी गुजरात जा चूका हूँ और बीमार हो कर लौटा हूँ। क्यों की मैं बचपन से लॉस एंजेल्स में रहा हूँ। खेर मम्मी-पापा मुझे फिर भी वह ले जाएंगे ताकि मैं अपनी मिटी से जुड़ा राहू।

चेतना बेन : केतन तुम्हारी कच्छ के रण क्षेत्र की रिसर्च (अन्वेषण) कैसी चल रही। मुझे उम्मीद है तुम अपना डाक्यूमेंट्री प्रोजेक्ट वही पर बनाओगे। 
केतन : सच में माँ मुझे पता नहीं था वहाँ पर इतना सब देखने को है। आईएम रियली एक्ससिटेड नाउ (मैं अब वास्तव में उत्साहित हूँ ) मैं वहाँ  की बायोलॉजिकल डाइवर्सिटी (जैविक-विविधता) देखना चाहता हूँ। मैं जानना चाहता हूँ की वहाँ  के अगरिया समुदाय के नमक के मजदूरों या किसान  कैसे रहते है इतनी परेशानियों के बिच और इतने कम पैसे में। 
चेतना बेन : तुम्हे जानना चाहिए, जरूर जानना चाहिए [मायूसीभरे स्वर में वह ये बोलते हुए चली जाती है ]। 
  
२० (२०) नवम्बर, आखिर वो दिन आ गया। हम ध्रांगधरा जो लगभग ४५ (45) किमी की दुरी पर "इंडियन वाइल्ड अस्स वाइल्डलाइफ सैंक्चुअरी" पहुँच गए है। यहाँ का तापमान लगभग ३०-३५ (30-35) डिग्री है जो की अम्म तौर के तापमान से कम है। हमने पास में ही एक होटल लिया, वह से गाड़ी से कच्छ के रण के लिए निकले। एक बड़े ही प्यारे से मड-हाउस (मिट्टी का घर) में हमने अपने आने वाले एक महीने का बसेरा बसाया जो सैंक्चुअरी से कुछ किमी दुरी पर है। सैंक्चुअरी का क्षेत्रफल ४९५४ (4954) वर्ग किमी है और यहाँ आते ही पापा और मम्मी अपने कामो में लग गए। माँ-पापा ने अपना प्लान (योजना) तो घर पर ही बना लिया था और आते ही उसमे लग गए। हम सैंक्चुअरी के क्षेत्र में घूमते हुए जानवरो और पक्षियों को देखते और साथ में माँ-पापा अपना अध्यन से जुड़े काम करते रहते है। पर न जाने वह इस बार कुछ अलग ही खोज रहे है समझ ही नहीं आ रहा, जैसे किसी अपने की तलाश में है। मैं कोई मनोविज्ञानी नहीं, पर उनकी बेचैनी साफ़ देख और समझ सकता हूँ, शायद वह मुझे बताना नहीं चाहते।

रण  का इकोसिस्टम (पारिस्थितिकी तंत्र) बड़ा उन्नत है। माँ-पापा हर २-३ दिन में यहाँ के अगरिया समुदाय के नमक के मजदूरों से मिलते है जिनके विकास के लिए वह कई सालो से काम कर रहे है। उनके स्वयं सहायता समूह के कामो का जाएजा लेना, उनको जागरूक करना, महिलाओ को काम सिखावना, स्वस्थ सम्बन्धी सेवाएं दिलवाना और उनको कैसे सहयता राशि मुहैया कराए, आदि विषियो पर बात-चित जैसे काम में माँ-पापा लगे रहते। इन नमक के मजदूरों और किसानो की हालत बड़ी दयनीय है। माँ-पापा के सामाजिक कार्य देख मुझे बहुत सौभाग्यशाली और गर्वान्गिता महसूस होता है की मैं उनका बेटा हूँ। इसी बिच हम अस्स-पास के इलाक़े में भी घूमने जाते रहते है। ये अगरिया समुदाय के नमक के मजदूर और किसान हमें अपने घर भी बुलाते रहते है और हम जाते भी है। कई लोग माँ-पापा को बड़े अच्छे से जानते है। पर अक्सर माँ-पापा मुझसे  चुप उनसे बात करते और एक नाम की खोज में लगे रहते है, "शारदा बेन खखाड़िया"

इस रण की संस्कृति भी बड़े लुभावानि और विविद है। हम जब रण उत्सव में गए तो मैं तो हैरान ही रह गया। मैं तो समझ ही नहीं पा रहा हूँ की इस डाक्यूमेंट्री मे क्या-क्या डालू, यहाँ का लोक गीत-संगीत और नित्य जैसे गजियो या रंगीन विषभूषा या लोक कला। और खाने की तो बात मत पूछो, कढ़ी-रोटला, चक्रदा पकवान और पता नहीं क्या-क्या। मुझे हर एक जाते पल के साथ इस मीठी से प्रेम होता जा रहा है। लेकिन न जाने इस वयस्तत में भी माँ-पापा किसे खोजने में लगे है। 

सैंक्चुअरी और रण के क्षेत्र में हमने कितने पशु, पक्षी और वनस्पति देखे, मुझे तो सब के नाम भी याद नहीं हुए। वहाँ इतने सरे है जैसे जंगली-गधो, नील-गाय, लकड़बग्धा आदि। "इंडियन वाइल्ड अस्स वाइल्डलाइफ सैंक्चुअरी" के एशियाई जंगली गधे, जिन्हे यहाँ के लोग "खुर" बोलते है की चल किसी मदमस्त हाथी से कम नहीं। ये गधे एक विलुप्त हो रही प्रजाति के है इसलिए इन्हे इतना संरक्षण हासिल है। आपको बताओ तो यहाँ २०० (२00) तरह के पक्षी देखे जा सकते है और उसमे से कई प्रवासी पक्षी है जैसे यूरोपीय रोलर (नीलकंठ), लैसर फ्लोरिकन (खरमोर) आदि। जितने सूंदर और विशाल फ्लेमिंगो (मराल) मैंने यहाँ देखे शायद ही कही देखे होंगे। इस बंजर वीराने में एक अलग ही सुंदरता है और यही मिलते है नमक के खेत।

ये वही  नमक के खेत है जहाँ पर अगरिया समुदाय के नमक के मजदूरों या किसान ५० (50) डिग्री की कड़ी धुप में ८ (8) महीने कड़ी मेहनत करते है नमक बनने के लिए। इस नमक की खेती में इनका पूरा शरीर और उम्र गाल जाती है, एक औसतन नमक के मजदूरों या किसान की उम्र केवल ५०-५५ (50-55) वर्ष ही होती है। इनके पुरे शरीर पर नमक का घातक आसार होता है, ये वक़्त के साथ उम्र से पहले अंधे होने लगते है , इनके पुरे शरीर की त्वचा रूखी और बेजान हो जाती है। इनको कई बीमारिया भी हो जाती है, खास तौर पर त्वचा सम्बन्धी। यहाँ तक की इनके हाथ और पैर नमक के खेतो में काम करते-करते सार्ड जाते है।  इस पेशे से जुड़ी हुई सबसे भयावल सच्चाई इनके अंतिम संस्कार के वक़्त दिखती है। इनके पैर देह-संस्कार के वक़्त नहीं जलते क्यों की वह सर्ड कर सख्त हो जाते है, एक पत्थर के सामान। नमक के मजदूरों के लिए यहाँ एक कहावत है की, "इनके शरीर में खून नहीं नमक बेहता है"। और इतनी मेहनत का इन्हे क्या मिलता है, जरा सोचिये। कोई हज़ारो-लाखो रुपये नहीं, बल्कि ६०-७० (60-70) रुपये पर १००० (1000) किलो। बिचौलिये, व्यापारी और बड़ी कम्पनिया सारा मुनाफा कमाती है। अक्सर ये  नमक के मजदूर और किसान घाटे में ही अपना नमक बेचते है क्योकि ज्यादातर पैसा तो इनके जनरेटर के तेल में ही चला जाता है। ये तपती धुप में अपने हाथो से कितने कुँए खोदते है तब जा कर कही किसी एक कुँए में इन्हे नमक का पानी मिलता है। उस पानी को ८ (8) महीने तक खरोंचते है तब जा कर नमक बनता है। यहाँ इनके बच्चो के लिए रण में कुछ २-३ (2-3) प्राथमिक विद्यालय है, जो एक मीठी की झुग्गी में लगते है। लेकिन उनका भविष्य पता नहीं कहा है। अगर कुछ किया न गया तो ये बच्चे भी अपने माँ-बाप की तरह नमक के मजदूर ही बनेंगे, क्योकि इन लोगो को और कोई काम आता भी तो नहीं है। 

[शाम का वक़्त है और सब साथ में बैठे है]
 

चेतना बेन : "शारदा बेन" मिली क्या ? [धीमी आवाज में बोली]
राजू भाई : नहीं, पर हम खोज रहे है। 
केतन : ये  "शारदा बेन खखाड़िया" मेरी दुल्हन है क्या ? हहहह [ठहाके लगते हुए]
चेतना बेन : तुम्हे जल्दी पता चल जाएगा। [गंभीर स्वर में] 
केतन : माँ इन नमक के मजदूरों या किसानो के बच्चे कैसे रहते है ?
चेतना बेन : बेटा.......  बीमार, कुपोषित और शिक्षा-विहीन। 
केतन : आप इन बच्चो के लिए कुछ नहीं करते ?
राजू भाई : हम इन बच्चो को स्वास्थ सुविधा , शिक्षा प्रायोजन और अडॉप्शन (दत्तक ग्रहण/गोद लेना) की सुविधा दिलवाते है। ताकि इन्हे एक अच्छा भविष्य मिल सके। 
चेतना बेन : आगे तुम्हे ही ये सब सम्हालना है चेतन। 
राजू भाई : ये तुम्हारी तो जमीन है [वाणी को विश्राम देते हुए ]
चेतना बेन : इनके माँ-बाप अपने बच्चो को हर हाल में इस हर-पल मरती जिंदगी से निकलना चाहते है। वह इसके लिए अपने जिगर के टुकड़े को किसी और को भी देने को तैयार हो जाते है। [ये बोलते -बोलते वो रोने लगी]

माँ को इतना भावुक मैंने बहुत कम देखा है। पापा ने उन्हें जैसे-तैसे शांत किया। शायद उन्हें मेरा ख्याल आ गया, मैं भी उनकी गोद ली हुई सन्तान हूँ। रात के वक़्त हम सब खाना खा कर बैठे थे इतने में कोई पापा से मिलने आया। पापा के माँ से बोला ........ 

राजू भाई : "शारदा बेन खखाड़िया" मिल गई। उनकी तब्बीयत बहुत ख़राब है, शायद अब वह कुछ दिन की मेहमान है। [गंभीर स्वर में]
चेतना बेन हम कल ही उनके पास जाऐंगे। अब ये बोझ मुझसे और नहीं झेला जाता।  [धीमी आवाज में बोली]
केतन : कौन है ये "शारदा बेन खखाड़िया", कौन लगती है वह हमारी और क्यों ये इतनी खास है।


[विराने में एक सन्नाटा छः गया ]

केतन : बोलो न माँ। 
चेतना बेन : वह तुम्हारी माँ है। बेटा हमने तुम्हे उनसे गोद लिया था पर वह नहीं  चाहती थी की तुम्हारे मन में कोई हीन भवाना आये या तुम हमे कभी भी पराया समझो इसलिए उन्होंने हमसे वचन लिया था की तुम्हे ये बताया जाए, की तुम्हारे माँ-पापा एक्सीडेंट में मर गए।  [रोते हुए बोली ]
राजू भाई : वह चाहती थी की तुम्हे इस बात का कभी पता न चले, पर हम तुम्हे एक बार उनसे मिलवाना चाहते थे। पर बेटा उन्हें  पता न लगने देना की तुम्हे सब पता है , उनकी तपस्या ख़राब मत करना।

ये सब सुनने के बाद मैं निःशब्द खड़ा हूँ , समझ ही नहीं आ रहा क्या बोलू। उस माँ  की मज़बूरी को समझू या इस माँ का प्यार। मैं अपने अनजान कल और आज के बिच खड़ा हूँ। मैंने माँ को गले से लगा लिया और चुप कराया। सारी रात छत की ओर देखता रहा। मन में इतने सवाल, इतनी बेचैनी है। क्या ये नमक एक मजदूर को इतना मजबूर कर देता है। 

सुबह होते ही हम गाड़ी से निकले, पुरे रस्ते किसी ने कोई बात नहीं की। इतनी चुप्पी की हवा की आवाज भी शोर लग रही है। जैसे ही वहाँ पहुंचे तो हमें एक झोपड़ी दिखी, एक आदमी वहाँ हमारा इंतजार कर रहा था। अंदर जा कर देख तो एक औरत खटिया पर लेटी हुई है। माँ उन्हें देखते ही पहचान गयी। उनकी तब्बियत काफी खराब है। आँखो से साफ़ दिखाई नहीं देता उनको, हाथ और पैर सर्ड गए है।

चेतना बेन : कैसी हो शारदा बेन। 

उनने हाथ हिला कर इशारा किया की ठीक हूँ। माँ-पापा उनकी खटिया के सामने खड़े हो गए और मुझे उनके पैर छूने को बोला। उनके पैरो को हाथ लगाया तो समझ आया की कैसे बेजान पत्थर सामान हो गए है नमक से। मैं  उनके पास बैठ गया। 

चेतना बेन : शारदा बेन अपने बेटे "केतन" को तुमसे मिलवाने लाई हूँ, उसे आशीर्वाद नहीं दोगी। तुम्हारे पास बैठा है। 

ये सुनते ही उनके चेहरे पर एक मुस्कान छा गयी और आँखो में आँसू आ गए। उनने मेरा हाथ अपने हाथ में ले लिया। उनके हाथ का रूखापन और कपन मैं महसूस कर सकता हूँ। वह बेचारी मुझे देखना चाह रही है पर इन आधी अंधी आँखों से उन्हें कुछ साफ़ नज़र नहीं आ रहा। मैं थोड़ा उनके तरफ झुका तो उन्होंने अपना हाँथ मेरे सिर पर रख, मुझे आशीर्वाद दिया। शायद जितनी शरीर में जान है उसका पूरा जोर लगा कर बोली, "जीते रहो" मुझे देख तो पा नहीं रही है इसलिए अपने हाथो से मेरे चेहरे और फिर कंधे से होते हुए मेरे हाथों को टटोलने लगी। मानू मेरी आकृति अपने मान की आँखों से देख रही हो। हम सब चुप-चाप उन्हें देख रहे है। इस क्षण में एक अलग ही आत्मीयता और संतोष है। कुछ देर बाद वह आदमी जो झोपडी के बाहर हमारा इंतज़ार कर रहा था हम लोगो से बोला, "अब आप लोग आराम से जाइये इतनी देर इस गर्मी में रहना आपके लिए ठीक नहीं"। उनने (शारदा बेन) मेरे हाथ को टटोलते हुए मुझे जाने का इशारा किया। मैं उठा और बाहर जाने लगा। फिर अचानक ही मेरे मन में कुछ आया और मैं पलट कर बोला.........

केतन : माँ जी अपना ध्यान रखिएगा।
 
ये सुनते ही वह फिर मुस्कुराई, जैसे परम सुख मिल गया हो और हाँथ मेरे ओर हिलाया। वह मुस्कुराता चेहरा अपने मन में बासा कर मैं वहाँ से निकला। इस सफर ने मुझे एक नया इंसान बना दिया है और इन नमक के मजदुर और उनकी मजबूरी का हाल देखा दिया है।



कलम  से 
प्रियंका तिवारी 

Disclaimer :

This is a work of fiction. Names, characters, businesses, places, events and incidents are either the products of the author’s imagination or used in a fictitious manner. Any resemblance to actual persons, living or dead, or actual events or any other literary material, called by any other name, is purely coincidental. The story is purely for entertainment purpose and the author has no intention to hurt the sentiments & emotions of any individual or public at large.

 

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Thursday, October 17, 2019

बाबु जी की आखिर सहेली

जिंदगी की भाग दौड़ में कब अपने दूर चले जाते है पता ही नहीं चलता। मेरा नाम केशव है और आज मेरे पिता जी का निधन हो गया। पिता जी को मैं प्यार से "बाबु जी" बुलाता था। मेरे बाबु जी एक रिटायर्ड प्रोफेसर थे और उम्र के सत्तरवें (७०) साल में थे। मेरी माता जी का निधन ५ (पांच) साल पहले ही हो गया था ,तब से बाबु जी अपने परम मित्र घनशयाम चाचा के सहारे थे पर उम्र के साथ वह भी चले गए। मैं और मेरी पत्नी नौकरी पेशा है और अपने परिवार की भौतिक जरूरतों को पूरा करने में दिन बेता देते है। मेरे परिवार में केवल तीन (३) लोग थे कल तक; बाबु जी, मैं और मेरी पत्नी राधा । हमने अभी तक संतान नहीं की क्यों की वक़्त और पैसे दोनों कम थे।

बाबु जी उम्र के इस पड़ाव में भी एक मिलनसर और ज़िंदादिल व्यक्ति थे। माँ और घनशायम चाचा के जाने के बाद वह अकेले थे पर जब भी किसी से मिलते, तुरंत घुलमिल जाते थे। कहते है एक बच्चे और बूढ़े में कोई अंतर नहीं होता, ये उन्हें देख कर साफ़ समझ आता था। हर उम्र के लोगो से दोस्ती कर लेते थे। शिक्षा के क्षेत्र से होने के कारण उनको ज्ञान और अनुभव दोनों ही बहुत था, काफी छात्र (स्टूडेंट्स) अक्सर उनसे मिलने और परामर्श लेने आते रहते थे। बाबु जी रोज़ सवेरे और शाम पार्क में टहलनें जाते थे और अक्सर वही स्टूडेंट्स से मिलने थे।

कुछ तीन (३) महीने पहले बाबु जी को पार्क में एक लड़की मिली, उसने बताया की वह सिविल परीक्षा की तैयारी कर रही है।  वह लड़की रोज़ बाबु जी से पार्क में मिलती और अलग अलग विषयो पर चर्चा करती। उसने बताया था की वह पास के गाँव के एक गरीब परिवार से है और शहर में कोचिंग के लिए आयी है। बाबू जी उसे हर तरह का मार्गदर्शन देते रहते थे। समय के साथ वह बाबू जी की प्रिय छात्रा और मित्र दोनों बन गयी थी। वह एक-दो बार घर भी आयी थी, और हम ये देख कर खुश थे की बाबू जी को समय काटने और बात करने के लिए कोई मिल गया था। "और नहीं तो क्या", हमारे पास वक़्त कहा था और वह एक स्टूडेंट ही तो थी। मैंने और राधा ने ध्यान से कभी उसे देखा भी नहीं था। ये कोई नई बात नहीं थी की कोई स्टूडेंट बाबू जी के साथ मिल-झूल रहा था। बाबू जी उसकी पढाई के लिए लगन देख बहुत प्रभावित थे। हम लोग यहाँ अपने काम में  मशरूफ थे और बाबू जी उसे पढ़ने में। समय अपनी गाती से चल रहा था। मेरी पत्नी अब उसे "बाबू जी की सहेली" बुलाती थी।

एक (१) महीने पहले बाबु जी सुबह पार्क से बहुत उदास घर आये। राधा ने कारण पुछा तोह कुछ जवाब ही नहीं दिया और कमरे में जा कर लेट गए। जब मैं रात में दफ़्तर से घर आया तो उसने मुझे ये सब बताया। तीनो रात में खाने की मीज पर साथ बैठे पर जाने क्यों एक अजीब बेचैनी थी बाबु जी के चेहरे पर, जैसे क्या खो गया हो। मैंने बाबू जी से पूछा "क्या होआ बाबु जी", वो बोले "सीमा दो (२) हफ्तो से मिलने नहीं आयी। मैं और राधा असमंजस में पड़ गए, "कौन है ये सीमा"। हमने बाबु जी की ओर संकोच से देखा, वो बोले "मेरी स्टूडेंट"। राधा ने हस्स कर बोला "आपकी सहेली", बाबू जी ने सिर हिलाया। हम दोनों ने बोला "आजाऐगी बाबु जी", और खाना खाने में लग गये, बाबु जी से उनकी चिंता का कारण पूछना याद ही नहीं रहा।

दो हफ्ते बाद, बाबू जी शाम की सैर से लौटे ही नहीं; रात के दस (१०) बज गए। मैं और राधा उनका इंतजार करते बैठे थे। वो आये और उदास सोफे पर बैठ गए। हम कुछ पूछते उससे पहले ही वो बोल पड़े, "वह सीमा एक ठग थी और मेरे दो लाख रूपए  ले कर भाग गयी। उसने बोला था उसके पिता जी का एक्सीडेंट हो गया है और ईलाज के लिए दो (२) लाख चाहिए। इन्शुरन्स कंपनी जब क्लेम देगी तो पैसे वापस कर देगी।  आज मैं उनके मकान पर गया तो पता चला वो भाग गयी है। मकान मालिक ने बताया की दो (२) महीने का किराया भी नहीं दिया। पुलिस थाने गया तो पता चला वह एक ठग थी और कई लोगो को अपनी बातो में फ़सा कर लाखो ठगे है उसने। सब को एक अलग नाम और कहानी सुना कर ठगा है उसने"।

मैंने गुस्से में बोला, "आप एक बार पूछ तो लेते"। वो बोले "जिंदगी में एक बार जरूर इंसान को उसका तजुर्बा धोखा दे देता है, मुझे भी दे गया। माफ़ करना बेटा पर तुम लोगो का वक़्त नहीं लेना चाहता था इसलिये पूछा नहीं"। ये कह कर वो अपने कमरे में चले गए। अब मैं और राधा एक अत्म गिलानी में चले गए थे, बाबु जी से बात करने का वक़्त ही नहीं था कभी हमारे पास, कितना अकेला कर दिया था हमने उन्हें।

कुछ देर बाद उन्होंने अपने कमरे से आवाज दी, "चलो अब सो जाओ कल ऑफिस जाना है"। हम अपने कमरे  में सोने चले गए। सवेरा तो हो गया पर बाबु जी फिर कभी नहीं उठे। आज उनकी चिता के सामने खड़ा मैं ये सोच रहा हूँ की इस विष्वास-घात ने, या हमारे दिए हुए अकेले-पन ने उन्हें हमसे हमेशा-हमेशा के लिए दूर कर दिया। अब ये उलझन सारी जिंदगी अनसुलझी रह जाऐगी।

 

कलम से...... 

प्रियंका तिवारी  


 

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